आज ऑफिस से जल्दी घर आ गई, तबियत कुछ ठीक
नहीं लग रही थी। सोचा थोड़ा आराम कर लूं., थोड़ी देर में राजीव भी आ जाएगा।
अभी बिस्तर पर लेटी ही थी कि फोन की घंटी घनघना उठी । उफ्फ! यह लैंडलाईन
फोन भी न ! मोबाईल के जमाने में इसकी क्या जरुरत, दौड़ कर जाना पड़ता है
उठाने के लिए। कई बार कह चुकी हूं राजीव से इसे डिस्कनेक्ट कराने के लिए,
लेकिन वह सुनें तब न ।' भुनभुनाती हुई हाल में आ गई । मैंने हैलो कहा ही
कहा था कि उधर से पहचानी-सी आवाज आई,
हैलो, सुधा?
हां, प्रशांत
तुम...
वाह' पहचान लिया, वो भी पूरे दस सालों बाद ।
कहां थे तुम इतने दिन,
ने कोई फोन, न पता । बस, मेरे जन्मदिन पर कार्ड भेजकर अपनी ड्यूटी पूरी
करते रहे, कभी बात तक नहीं की?
ओह सुधा! कितना डांटोगी फोन पर...
शाम को बढ़िया सा खाना बनाकर रखना में आ रहा हूं, तुम्हारे घर । अच्छा रखता
हूं, अभी एक मीटींग है।' मैंने रिसीवर रखा भी नहीं था कि प्रशांत ने फोन
काट दिया ।
'यह भी अजीब है, इतने सालों के बाद बात की, लेकिन हाल तक
नहीं पूछा । बस, एक जज की तरह फैसला सुना दिया ।' मैंने राजीव को जरुरी
सामान की लिस्ट गिना दी। वे भी प्रशांत को बहुत पसंद करते हैं।
ऑफिस
से लौटकर उन्होंने मेरे साथ डिनर की तैयारी की। 'देखो सुधा मैंने कोई कसर
नहीं छोड़ी भगत सिंग के स्वागत की तैयारी में । अब वो इतनी बड़ी कंपनी का एमडी जो है।' राजीव ने हंसते हुए कहा था ।
राजीव , प्लीज़ उसे भगत सिंग मत कहा करो मैंने चिड़कर कहा।
क्यों,
जब मैंने पूछा था कि प्रशांत तुम चिर कुंवारे क्यों हो, तो याद नहीं उसने
क्या जवाब दिया था? कहा था भाई साहब, भगतसिंग ने आजादी को अपनी दुल्हन बना
लिया था, वैसे ही मैंने अपनी सफलताओं से शादी कर ली है, ताकि ये हमेशा मेरे
साथ रहे। लेकिन मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि किसी कन्या ने महाशय का
दिल तोड़ा होगा ।' राजीव ने कहा।
अच्छा अब जल्दी से फ्रेश हो जाओ, प्रशांत आता ही होगा ।
ठीक
छह बजे कॉल बेल बजी। राजीव ने दरवाजा खोला तो प्रशांत ही था । अच्छी-भली
लम्बाई, गौर , चश्मे के अंदर से झांकती बड़ी-बड़ी स्वप्निल आंखें, पद की
गरिमा साफ झलक रही थी व्यक्तित्व से।
बदला नहीं था प्रशांत । बस, थोड़ी गंभीरता आ गई थी चेहरे पर । अचानक ख्याल आया कि प्रशांत बैठ चुका था सोफे पर ।
क्या बात है सुधा, न हैलो, न हाय! ऐसे चुपचाप खड़ी हो कि मेरे आने से खुश नहीं हो तुम?
अरे
नहीं, यह तो पूरे दिन आपका इंतजार करती रही।' मुझसे पहले राजीव बोल पड़े।
नौ बजे हम सब डिनर टेबल पर बैठे थे, फिर राजीव और प्रशांत की बातों का
सिलसिला शुरु हुआ, तो ऑफिस से लेकर राजनीति तक पहुंच गया ।
मुझे भी कितनी सारी बातें करनी थी, पर चार घंटे कैसे बीत गए पता ही न चला । बस, थोड़ी-बहुत औपचारिक बातें ही हो पाई। दस बज चुके थे और प्रशांत के जाने का समय हो चुका था। राजीव उसे एयरपोर्ट तक छोड़ने जा रहे थे।
'चलता हूं सुधा,
अपना ख्याल रखना।' भरी आंखों से प्रशांत ने विदा ली थी। मैं भी बस इतना ही
कह पाई कि प्रशांत अपना पता और मोबाईल नम्बर तो देते जाओ । जाने फिर कब
मुलाकात होगी।
हां-हां लो न' । कहते हुए उसने लिफाफा और एक कार्ड
थमा दिया।
वो जाते-जाते पलटकर देखता रहा । मैं अंदर जाकर सोफे पर बैठ गई। अचानक मेरा हाथ उस सुंदर लिफाफे पर गया। क्या हो सकता है? उत्सुकता हो रही थी। लिफाफा खोला तो काफी लम्बा पत्र था । मोती जैसे सुंदर अक्षरों को मैंने पढ़ना शुरु किया।
'सुधा- आज पहली बार तुम्हें कुछ लिख रहा हूं। वो बातें,
जो तुम्हें कभी न बताने का फैसला किया था मैंने । मुझे मेरी सीमाएं मालूम
है और खुद पर भरोसा भी है। लेकिन कभी कभी भावनाओं का आवेग इतना तीव्र हो
जाता है कि हम चाहकर भी उसे रोक नहीं पाते और अनायास ही उसकी रौ में बहते
चले जाते हैं।
पैंतालीस वर्ष की उम्र में ये बातें मुझे शोभा नहीं
देती। लेकिन क्या करूं, यह प्रेम है न, इंसान को प्रैक्टिकल कहां होने देता
है। दिल पर एक बड़ा बोझ है। आज तुमसे बांटकर हल्का हो जाए। जानती हो, इन
बीस सालों में एक दिन भी ऐसा नहीं बीता, जब अपने आस-पास तुम्हें महसूस न
किया हो मैंने । जीवन में जब भी लड़खड़ाया, तुम्हारे वो शब्द जो तुमने बीस
साल पहले कहे थे, मेरा सम्बल बने । जब भी टूटा, तुम्हारे कोमल हाथों का
स्पर्श अपने माथे पर महसूस किया। मेरी ऊंचाईयां तुम्हारी ही तो देन हैं।
लेकिन सबकुछ पाकर भी, जब पीछे मुड़कर देखता हूं, तो दूर दूर तक एक खालीपन
फैला नज़र आता है। जैसे पीछे मेरा कुछ छूट गया हो।
तुम मुझे तब
मिली, जब मैं भावनात्मक रूप से टूट चुका था। घरवालों के साथ-साथ मेरा
विश्वास भी खुद पर से उठने लगा था। वो मेरी असफलताओं का दौर था। प्रतियोगी
परिक्षाओं में लगातार थोड़े नम्बरों से चूक जाता था। याद है, पंद्रह अप्रेल
की वो उमस भरी रात, जब दीदी की बारात वाले दिन तुम पटना आई थीं, मेरे घर
अपने पापा के साथ ।
कहां भूल पाया मैं आज तक तुम्हारी उस छवि को । गहरे
नीले रंग की साड़ी, चूड़ियों से भरी कलाई और माथे पर छोटी-सी बिंदिया । एक
अजीब-सा आकर्षण था तुम्हारे व्यक्तित्व में, जो बसबस ही मुझे तुम्हारी ओर
खींच रहा था । कुछ पलों में ही जाने कितने सपने सजा लिए लिए थे मेरे दिल ने
। फिर अचानक मेरी नज़र तुम्हारी मांग में लगी सिंदूर की पतली सी रेखा पर
पड़ी। एक कसक सी उठी थी तब, कुछ दरक गया था मेरे अंदर । आश्चर्य होगा
तुम्हें जानकर कि ऐसी पीड़ा मेरी मां के मन में भी थी शायद... क्योंकि
तुरंत ही मां ने कहा था तुम्हारे पिताजी से, 'क्यूं भाई साहब, इतनी भी क्या
जल्दी थी बिटिया की शादी की। बचपन में देखा था इसे, तभी से सोचने लगी थी
मैं, इतनी प्यारी बच्ची के लिए योग्य लड़कों की कमी थी क्या?' और अनायास ही
मां की नजर मुझपर टिक आई थी। मैं झेंपकर इधर-उधर देखने लगा था, मानो चोरी
पकड़ी गई हो। अंकल बोल रहे थे, बहन जी, जीवन-मरण, शादी-ब्याह सब किस्मत की
बात होती है।'
तुम जल्द ही तुम मेरे परिवार से घुलमिल गई थी। बढ़चढ़
कर विवाह की रस्मों में हिस्सा भी लिया था । दीदी की बिदाई के बाद सभी
थककर सो गए थे । मैं भी छत पर चारपाई पर लेटा हुआ था । मेरा सिर दर्द से
फटा जा रहा था। भारी थकान के बाद भी नींद नहीं आ रही थी, तभी तुम्हारे कोमल
हाथ का स्पर्श महसूस किया था माथे पर, मैं उठने लगा, तो तुमने कहा था, लेटे
रहिए, मैं सिर दबा देती हूं।'
इतने अधिकार से कहा था कि मैं मना नहीं कर
पाया था। 'कैसी चल रही है पढ़ाई? पापा बहुत तारीफ करते हैं आपकी।" तुमने
पूछा, तो मेरा जवाब था, 'पता नहीं, अभी तो किस्मत साथ नहीं दे रही। कभी
लगता है लक्ष्य के करीब हूं, फिर अचानक सबकुछ छिटककर दूर चला जाता है। किसी
परिक्षा में सफलता नहीं मिल रही । सोचता हूं बड़े लक्ष्य को पाने के चक्कर
में उम्र न निकल जाए, कहीं, किसी स्कूल में टीचर ही बन जाऊं । पापा पर अब
और बोझ नहीं बन सकता मैं ।'उस दिन अपना कलेजा खोलकर रख दिया था तुम्हारे
सामने । 'यह क्या? इतनी जल्दी हार मान गए? इतना अच्छा व्यक्तित्व और इतना
छोटा कद? नहीं, आप किसी बड़े लक्ष्य को पाने के लिए ही बने हैं, लेकिन सफल
होने पर मुझे मत भूल जाइएगा । कहते हुए खिलखिला दी थीं तुम ।
एक
अनजान लड़की का मुझ पर इतना विश्वास! इससे पहले तुमसे कभी बात तक नहीं हुई
थी मेरी, सिर्फ दूर के रिश्ते के कारण सामान्य परिचय था हमारा । उस दिन
तुम्हारी मर्मस्पर्शी बातों से अचानक जी उठा था मैं । तुम चली गईं, पर मैं
दोगुने साहस के साथ चल पड़ा था सफलता की राह पर... और देखो आज किस मुकाम पर
पहुंच गया हूं । तुमने पिछली बार पूछा था मुझसे कि मैं घर क्यों नहीं बसा
लेता? परिवार वालों ने भी कई बार शादी के लिए कहा, लेकिन इस बारे में सोचकर
ही बेचैनी होने लगती है। उस रिश्ते से जुड़ने का क्या मतलब, जिससे न्याय न
कर सकू।
सुधा, इन सब के लिए तुम खुद को दोषी मत ठहराना । तुम्हें तो अहसास
तक नहीं मेरी भावनाओं का । यह निर्णय सिर्फ मेरा है। जानता हूं, आकाश के
तारों को पा लेने की कामना करना बेमानी है, पर जो मिल सकता था, वो नहीं
मिला तो जीवन भर.. । सिर्फ समय का ही तो फासला था, पता नहीं तुमने जल्दी कर
दी या फिर मैंने ही देर लगा दी। तुम सोच रही होगी कि इतने सालों बाद अब ये
सब तुम्हें क्यों बता रहा हूं? वो इसलिए कि कल जब मैं आस्ट्रेलिया चला
जाऊंगा हमेशा के लिए, शायद फिर कभी न मिलें हम। पहले भी बता सकता था,
लेकिन... । अलविदा सुधा ।
हे भगवान, यह क्या लिख दिया प्रशांत ने ।
मैं कैसे नहीं पढ़ पाई उसकी स्वप्निल आंखों की भाषा । इस पत्र ने मेरे वजूद
को हिलाकर रख दिया | मेरे हाथ कांप रहे थे और मैं पसीने से भीग गई थी। लगा
जैसे बीस साल की यात्रा इन चार पन्नों में तय कर ली हो । तो क्या प्रशांत
के अकेलेपन की असल जिम्मेदार मैं ही हूं? मेरे कारण उसने अपना घर नहीं
बसाया? आज मैं ऐसे अपराध के बोध से घिर चुकी हूं, जो मैंने कभी किया ही
नहीं था।
समाप्त
-राखी शर्मा
SARAL VICHAR
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