उस छोटे-से होटल की टेबल पर हाथों से चेहरा ढांपे रोहन को लगा कि उसे यहां आए कोई दो दिन नहीं, दो साल हो गए हैं। आंखों के आगे छाए अंधेरे में उसने झांकने की कोशिश की, तो पिछले दो दिनों का एक-एक क्षण उसकी नज़रों के सामने आ गया। परसों की ही तो बात थी । सुबह ४ बजे का अलार्म लगाया था उसने टेस्ट की तैयारी के लिए । पढ़ने उठा तो मम्मी भी जाग गई, तभी दरवाजे की घंटी बजी। असमय घंटी की आवाज से अचानक खौफ मम्मी के चेहरे पर नजर आया । वे सहमी-सी दरवाजा खोलने के लिए गई। तब तक पापा भी उठ गए । रोहन भी कौतुहलवश दरवाजे तक गया। दरवाजे पर ३-४ व्यक्ति खड़े थे । कपड़ों से बड़े अधिकारी लग रहे थे । उन्होंने कोई कार्ड दिखाया और बस! पापा के चेहरे पर तो हवाईयां उड़ने लगीं । वे निराश-हताश से कोने के सोफे पर जाकर बैठ गए। मम्मी भी घबराई-सी अंदर आई और सारी चाबियां उन अफसरों के हवाले कर दीं । परदे की ओट में बस इतना ही देख पाया रोहन... फिर पास के बेडरुम से अलमारी खुलने और उससे निकलते कागजों की आवाजें ही आई थी उसे । अधकचरी उम्र में वह इतना तो समझ गया था कि पापा की गलतियां पकड़ में आ गई हैं। और फिर अधिकारियों की बातों से भी कुछ-कुछ कयास लगाया, जो उसके कानों में पड़ रही थीं, 'सर देखिए, पूरा शेयर बाज़ार लगा है यहां तो... हर कम्पनी के शेयर मौजूद हैं।' 'अरे इधर लॉकर सोने के गहने उगल रहा है। ये सारे बिल तो फर्जी दिख रहे हैं, पता नहीं कहां-कहां से अरेंज किए होंगे... ओह, नोट ही नोट... सर ये कैश भी कुछ कम नहीं दिख रहा।' ये आवाजें रोहन के कानों में पिघला सीसा डलने-सी पीड़ा दे रही थीं।
हमेशा चपरासियों, ड्राईवरों और अपने अधीनस्थों पर गरजने वाले पापा का इतना बुझा-बुझा रूप रोहन ने पहले कभी नहीं देखा था । अधिकारियों में अलग पहचान बनाने वाले पापा आज किसी हारे हुए योद्धा की तरह सिर झुकाए बैठे थे। हमेशा पापा की नज़रों से डरनेवाले रोहन को आज पापा से बहुत सहानुभूति हो रही थी। रोहन के स्कूल का समय होने से कुछ पहले मम्मी ने डरते-डरते उन अधिकारियों से पूछा, टेस्ट है बेटे का... .उसे स्कूल भेज दें?' उनके 'हाँ' कहते ही मम्मी कमरे में आईं । रोने से आंखें सूजी हुई थीं उनकी । रोहन से कोई बात नहीं की उन्होंने । मां की हालत देख रोहन भी कुछ पूछ नहीं पाया । वह किसी तरह तैयार होकर बाहर निकला। घर के सामने पीली बत्ती वाली गाड़ी खड़ी थी। आस-पास के घरों से लोग झांक -झांक कर देख रहे थे । आपस में धीरे-धीरे कुछ बातें भी कर रहे थे। रोहन नीची गर्दन किए बस स्टॉप तक पहुंचा । टेस्ट का तो एक अक्षर भी नहीं था दिमाग में । उसके मन में तो कुछ अलग ही उधेड़-बुन चल रही थी। क्या गलत तरीके से कमाए हैं इतने पैसे । मैं कितना रौब झाड़ता था सब दोस्तों के सामने । कॉलोनी के दोस्तों के बीच चाइनीज़, पिज्जा या कोल्ड्रिंक हो, खाते सब और रौब दिखाने के लिए पैसे देता मैं... तभी तो सब आगे-पीछे घूमते हैं मेरे । गलती होने पर भी सब मेरा ही साथ देते हैं। मैंने अनिकेत को कितना चिढ़ाया, जब उसने बिना गियरवाली साईकिल खरीदी थी। उसे अपनी चमचमाती गियरवाली साईकिल को छूने नहीं दिया था । अपना जन्मदिन भी बड़े होटल में मनाया और किसी से गिफ्ट भी नहीं लिया, उल्टा रिटर्न गिफ्ट देकर उन्हें चौंका दिया था।
मम्मी भी तो मामा के घर जाकर कितने गहने और मंहगे सामान दिखाती थीं। खासकर मामी को, ताकि उनकी शान बढ़ जाए और मामी का चेहरा उतर जाए। किटी पार्टी के लिए भी हर बार नई साड़ी की मांग होती थी उनकी। पापा भी मम्मी को खुश करने के लिए उनकी हर फरमाईश पूरी करते । वे खुद भी तो अपना कोई शौक अधूरा नहीं छोड़ते । कपड़े, परफ्यूम और घड़ियों की दिवानगी का सबको पता है। अब... जब सबको असलियत का पता चलेगा, तो क्या होगा? कॉलोनी के दोस्तों से तो खबर स्कूल तक पहुंच गई होगी। सब मुझसे पूछेंगे, तो क्या जवाब दूंगा? टीचर और स्कूल के बच्चे कितनी हिकारत से देखेंगे मुझे? वीनू तो मेरा पक्का दोस्त है, कुछ नहीं बोलेगा... पर बाकी बहुत चिढ़ाएंगे मुझे । तब मैं...
नहीं, मैं स्कूल नहीं जाऊंगा। नहीं कर पाऊंगा मैं सबका सामना ।
और बस इतना तय करते ही रोहन के पैर बस स्टॉप का रास्ता छोड़ रेल्वे स्टेशन की ओर बढ़ गए। वह तेज़ कदमों से चलता हुआ स्टेशन के अंदर दाखिल हो गया। हड़बड़ाहट में जो सामने ट्रेन दिखी, उसमें जाकर बैठ गया । कोने में दुबककर । यूनीफार्म और बैग के साथ बैठे सीधे-सादे बच्चे को सब बड़े कौतुहल से देख रहे थे। उन्हें देख रोहन का दिल धड़कने लगा । उससे भी तेज़ी से उसका दिमाग चलने लगा । आठ बजने वाले हैं, अब तक स्कूल से तो मेरे न आने का मैसेज़ चला गया होगा पापा के मोबाईल पर । चिंता में पापा मुझे ढूंढवाना शुरु कर दिया होगा। अगर कहीं पुलिस में खबर कर दी तो...? पुलिस तो मुझे पकड़कर वापिस घर... और फिर वही दोस्त... नहीं!! मैं वापस घर नहीं जाऊंगा... किसी कीमत पर नहीं।
यह ख्याल आते ही रोहन ट्रेन के रुकने का इंतजार कर लगा । एक छोटे से स्टेशन पर ट्रेन रुकते ही वह तेजी से नीचे उतर गया। बहुत छोटा-सा गांव था यह । सामने ही होटल दिखा और रोहन बिना कुछ सोचे कोने की बेंच पर बैठ गया। डरे-सहमे रोहन का दिल तेजी से धड़क रहा। करीब दो घंटे तक अकेले, गुमसुम बैठा रहा होटल में आने-जाने वाला हर व्यक्ति बड़े कोतूहल से उसे देख रहा था... पर किसी ने कुछ पूछा नहीं । मौका देखकर होटल के मालिक यानी बाबा उसके पास आए। सिर पर हाथ फेरकर पूछा, 'बबुआ, अकेले ही निकले हो घर से? कोई परेशानी?
कुछ देर चुप रहने के बाद फूट-फूटकर रो पड़ा रोहन । बाबा ने उसे ढांढस बंधाया । सुबकते हुए उसने पूरी कहानी बाबा को सुना दी बाबा भी धीरज से सुनते रहे सब, फिर पानी और चाय पिलाकर पूछा, बबुआ दिल से पूछकर सच-सच बताओ, अब क्या चाहते हो?'
बाबा के अपनेपन ने इतनी-सी देर में रोहन का भरोसा जीत लिया था। बहुत हिम्मत करके बोला, बाबा, बस दो दिन रख लिजिए। किसी को कुछ मत बताईए, फिर आप जो कहेंगे करुंगा। सच मां की कसम ।'
कसम खाते हाथों को थाम लिया बाबा ने । भारी मन से रोहन की बात मान ली। शायद उम्र की परिपक्वता ने उन्हें सिखा दिया था, किशोरावस्था की नाजुक बेला में पतंग ज़रा-सी गलती से गोता खाकर ज़मीं पर आ जाती है। डोर को बहुत सम्भालना होता है इस उम्र में । वृद्धावस्था में उनका अकेलापन भी शायद ऐसी ही किसी गलती का पश्चाताप कर रहा था । रोहन के मन की बात मानकर शायद वे आत्मग्लानि से उबर पाएं। बाबा का तो सारा संसार उस होटल में ही था । कुल जमा दो जोड़ी कपड़े थे और एक गुदड़ी । होटल बंद होने के बाद बचा हुआ खाकर, कोने की एक बेंच पर ही सो जाते । रोहन ने भी बाबा के साथ होटल में ही रहने का मन बना लिया । बाबा की मदद के लिए रोहन जब जूठे कप-गिलास धोने लगा, तो हाथ कांप रहे थे उसके । बाबा ने कहा, 'रहने दो बबुआ। आपके बस का नहीं ये सब । इधर आकर मेरी कुर्सी सम्भालो ।" रोहन का ध्यान बंटाने के लिए उन्होंने शहर से लाने वाले सामान की सूची बनाना, ग्राहकों से पैसे लेकर हिसाब रखना और जब बाबा सौदा लेने जाएं तो होटल सम्भालना जैसी जिम्मेदारियां उसे सौंप दीं। वरना बाबा को अक्सर होटल बंद करके शहर जाना होता था । होटल चलने तक तो सब ठीक रहा, पर रात होते ही जब बाबा ने होटल बंद कर खाना खाने के लिए रोहन को बुलाया, तो रोहन के उदास चेहरे ने उन्हें भीतर तक तोड़ दिया । मन ही मन सोचने लगे कि कहीं कोई चूक तो नहीं कर रहा हूँ मैं? फिर ईश्वर को याद कर सब उसकी मर्जी पर छोड़ दिया।
दो दिनों से गौर कर रहे थे बाबा, रोहन ठीक तरह से खा नहीं रहा है। आज सौदा लेने जाते वक्त बाबा ने रोहन की बनाई सूची हाथ में ली और टेबल पर अखबार हाथ में लिए गुमसुम बैठे रोहन की आंखों को देखकर समझ गए कि कुछ हुआ तो ज़रुर है । तुरंत पूछने के बजाए बाबा ने उसे सम्भलने का वक्त देना उचित समझा । उसकी ओर देखकर दूर से ही पूछा, बबुआ, दो दिन से ढंग से खाना नहीं खा रहे हो । क्या खाओगे? कुछ खास पसंद हो, तो लिख दो, लेते आएंगे। बताओ क्या लाना है शहर से?
आंसू पोंछते हुए रोहन बोला, 'बाबा... जो कहूंगा तो ला दोगे?' और बाबा के इशारे से हां कहते ही रोहन बोला, 'ला सको तो एक पोस्टकार्ड ला देना ।' सन्नाटा छा गया दोनों के बीच । इस एक वाक्य में ही बाबा मानो सब समझ गए। आगे कुछ पूछे बिना चल दिए शहर की ओर ।
सामान-सौदा कुछ खरीदने में मन नहीं लगा। बस, पोस्टकार्ड लेकर वापस आ गए। आते ही सबसे पहले रोहन के हाथ में पोस्टकार्ड थमाया और बोले, बबुआ, बहुत बांधे रखी अपने मन की पीर । अपनी उम्र से कहीं ज्यादा देर तक । बस अब देर मत करो । रोहन के सिर पर अपने आशीष का हाथ रख बाबा चले गए।
और बस इतना तय करते ही रोहन के पैर बस स्टॉप का रास्ता छोड़ रेल्वे स्टेशन की ओर बढ़ गए। वह तेज़ कदमों से चलता हुआ स्टेशन के अंदर दाखिल हो गया। हड़बड़ाहट में जो सामने ट्रेन दिखी, उसमें जाकर बैठ गया । कोने में दुबककर । यूनीफार्म और बैग के साथ बैठे सीधे-सादे बच्चे को सब बड़े कौतुहल से देख रहे थे। उन्हें देख रोहन का दिल धड़कने लगा । उससे भी तेज़ी से उसका दिमाग चलने लगा । आठ बजने वाले हैं, अब तक स्कूल से तो मेरे न आने का मैसेज़ चला गया होगा पापा के मोबाईल पर । चिंता में पापा मुझे ढूंढवाना शुरु कर दिया होगा। अगर कहीं पुलिस में खबर कर दी तो...? पुलिस तो मुझे पकड़कर वापिस घर... और फिर वही दोस्त... नहीं!! मैं वापस घर नहीं जाऊंगा... किसी कीमत पर नहीं।
यह ख्याल आते ही रोहन ट्रेन के रुकने का इंतजार कर लगा । एक छोटे से स्टेशन पर ट्रेन रुकते ही वह तेजी से नीचे उतर गया। बहुत छोटा-सा गांव था यह । सामने ही होटल दिखा और रोहन बिना कुछ सोचे कोने की बेंच पर बैठ गया। डरे-सहमे रोहन का दिल तेजी से धड़क रहा। करीब दो घंटे तक अकेले, गुमसुम बैठा रहा होटल में आने-जाने वाला हर व्यक्ति बड़े कोतूहल से उसे देख रहा था... पर किसी ने कुछ पूछा नहीं । मौका देखकर होटल के मालिक यानी बाबा उसके पास आए। सिर पर हाथ फेरकर पूछा, 'बबुआ, अकेले ही निकले हो घर से? कोई परेशानी?
कुछ देर चुप रहने के बाद फूट-फूटकर रो पड़ा रोहन । बाबा ने उसे ढांढस बंधाया । सुबकते हुए उसने पूरी कहानी बाबा को सुना दी बाबा भी धीरज से सुनते रहे सब, फिर पानी और चाय पिलाकर पूछा, बबुआ दिल से पूछकर सच-सच बताओ, अब क्या चाहते हो?'
बाबा के अपनेपन ने इतनी-सी देर में रोहन का भरोसा जीत लिया था। बहुत हिम्मत करके बोला, बाबा, बस दो दिन रख लिजिए। किसी को कुछ मत बताईए, फिर आप जो कहेंगे करुंगा। सच मां की कसम ।'
कसम खाते हाथों को थाम लिया बाबा ने । भारी मन से रोहन की बात मान ली। शायद उम्र की परिपक्वता ने उन्हें सिखा दिया था, किशोरावस्था की नाजुक बेला में पतंग ज़रा-सी गलती से गोता खाकर ज़मीं पर आ जाती है। डोर को बहुत सम्भालना होता है इस उम्र में । वृद्धावस्था में उनका अकेलापन भी शायद ऐसी ही किसी गलती का पश्चाताप कर रहा था । रोहन के मन की बात मानकर शायद वे आत्मग्लानि से उबर पाएं। बाबा का तो सारा संसार उस होटल में ही था । कुल जमा दो जोड़ी कपड़े थे और एक गुदड़ी । होटल बंद होने के बाद बचा हुआ खाकर, कोने की एक बेंच पर ही सो जाते । रोहन ने भी बाबा के साथ होटल में ही रहने का मन बना लिया । बाबा की मदद के लिए रोहन जब जूठे कप-गिलास धोने लगा, तो हाथ कांप रहे थे उसके । बाबा ने कहा, 'रहने दो बबुआ। आपके बस का नहीं ये सब । इधर आकर मेरी कुर्सी सम्भालो ।" रोहन का ध्यान बंटाने के लिए उन्होंने शहर से लाने वाले सामान की सूची बनाना, ग्राहकों से पैसे लेकर हिसाब रखना और जब बाबा सौदा लेने जाएं तो होटल सम्भालना जैसी जिम्मेदारियां उसे सौंप दीं। वरना बाबा को अक्सर होटल बंद करके शहर जाना होता था । होटल चलने तक तो सब ठीक रहा, पर रात होते ही जब बाबा ने होटल बंद कर खाना खाने के लिए रोहन को बुलाया, तो रोहन के उदास चेहरे ने उन्हें भीतर तक तोड़ दिया । मन ही मन सोचने लगे कि कहीं कोई चूक तो नहीं कर रहा हूँ मैं? फिर ईश्वर को याद कर सब उसकी मर्जी पर छोड़ दिया।
दो दिनों से गौर कर रहे थे बाबा, रोहन ठीक तरह से खा नहीं रहा है। आज सौदा लेने जाते वक्त बाबा ने रोहन की बनाई सूची हाथ में ली और टेबल पर अखबार हाथ में लिए गुमसुम बैठे रोहन की आंखों को देखकर समझ गए कि कुछ हुआ तो ज़रुर है । तुरंत पूछने के बजाए बाबा ने उसे सम्भलने का वक्त देना उचित समझा । उसकी ओर देखकर दूर से ही पूछा, बबुआ, दो दिन से ढंग से खाना नहीं खा रहे हो । क्या खाओगे? कुछ खास पसंद हो, तो लिख दो, लेते आएंगे। बताओ क्या लाना है शहर से?
आंसू पोंछते हुए रोहन बोला, 'बाबा... जो कहूंगा तो ला दोगे?' और बाबा के इशारे से हां कहते ही रोहन बोला, 'ला सको तो एक पोस्टकार्ड ला देना ।' सन्नाटा छा गया दोनों के बीच । इस एक वाक्य में ही बाबा मानो सब समझ गए। आगे कुछ पूछे बिना चल दिए शहर की ओर ।
सामान-सौदा कुछ खरीदने में मन नहीं लगा। बस, पोस्टकार्ड लेकर वापस आ गए। आते ही सबसे पहले रोहन के हाथ में पोस्टकार्ड थमाया और बोले, बबुआ, बहुत बांधे रखी अपने मन की पीर । अपनी उम्र से कहीं ज्यादा देर तक । बस अब देर मत करो । रोहन के सिर पर अपने आशीष का हाथ रख बाबा चले गए।
हाथ में पोस्टकार्ड लेकर देर तक देखता रहा रोहन बाबा को... फिर हिम्मत करके उसने पेन निकाला और लिखने लगा, 'प्यारे पापा, मैं भी लौट आना चाहता हूं। नहीं रह सकता आप सबके बिना । एक-एक पल सदियों की तरह बीत रहा है। बहुत छोटा होकर बहुत बड़ी मांग कर रहा हूं आपसे... पापा, पहले आप जिस राह पर हैं, वहां से लौट आईए... में वादा करता हूं, मैं भी तुरंत लौट आऊंगा आप सबके पास ।
-आपका बेटा रोहन
-सीमा व्यास
SARAL VICHAR
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