छोटा सा ही सही, साम्राज्य है यह घर अम्मा का। हुकूमत चलती है अम्मा की। मजाल है उनकी के बगैर उनके क्षेत्र में प्रवेश कर जाए। हमें भी सख्त हिदायत रहती कि जो चीज जहां से लो, वहीं रखो ताकि अंधेरे में भी खोजो तो पलभर में मिल जाए। बाबूजी... बाबूजी भी कभी रसोई में घुसने का प्रयास करते तो झट अम्मा कह देती, 'आप तो बस रहने ही दिजिए। मेरी रसोई मुझे ही संभालने दिजिए, आप तो बस अपना दफ्तर संभालिए।'
फिर जब कभी अम्मा किसी काम में व्यस्त होती और बाबूजी से कहती - सुनिए जी, जरा गैस बंद कर देंगे? बाबूजी झट हंसते हुए कहते 'न भई, तुम्हारी राज्य सीमा में मैं भला कैसे प्रवेश कर सकता हूं।' यह बात नहीं कि अम्मा को बाबूजी के रसोई जाने से कोई परहेज हो। यह तो बहाना था बाबूजी को घर के झंझटों से दूर रखने का। चाहे बाजार का किराना लाना हो या दूध वाले या प्रेस वाले का हिसाब ही क्यों न हो। समझदार है अम्मा। वे जानती हैं दफ्तर में सौ झंझटें होती हैं, कम से कम घर में तो इंसान सुख से रहे।
बाबूजी के नहाने के पानी से लेकर बाथरूम में उनके कपड़े रखने तक की जिम्मेदारी बड़े कौशल से निभाती अम्मा। दफ्तर से आकर बाबूजी का काम होता अखबार पढ़ना और टीवी देखना। बाबूजी के सदा बेफिक्र चेहरे के पीछे अम्मा ही नजर आतीं।
अम्मा का प्रबंध कौशल भी अनोखा था। सबकी जरुरतों का ध्यान रखना, सुबह से लेकर शाम तक किसी नटनी की भांति एक लय से नाचतीं। न कभी थकती अम्मा और न ही उनके चेहरे पर कभी कोई झुंझलाहट। सदा होठों पर मुस्कान लिए हमारा उत्साह बढ़ाती। मेरे और चिंटू के स्कूल से आने से पहले वे घर के सारे काम निबटा लेतीं।
उनकी ममता का प्रभाव था कि मैं और चिंटू सदैव स्कूल में अव्वल रहते। हमारे स्कूल की यूनिफार्म, स्कूलबैग और टिफिन में अम्मा का मातृत्व झलकता था।
हरी दूब पर चलते दिन गुजर रहे थे। सारे घर में मशीन की तरह फिरती अम्मा। एक दिन अचानक मशीन में खराबी आ गई। सारे घर का व्यापार ही थम गया। डॉक्टर ने अम्मा को आराम करने की नसीहत दी। फिर भी अम्मा से जितना बन पड़ता, उठकर कुछ-कुछ काम कर लेती ताकि हमें और बाबूजी को कम परेशानी हो।
बाबूजी अब बदल गए थे। पहले हमारी छोटी-छोटी गलतियों पर डांटने वाले बाबूजी, अब बड़ी गलतियों पर भी चुप रहते। उनका सारा समय अम्मा की तीमारदारी में बीत जाता।
अम्मा का पूरा ख्याल बाबूजी रखते। उनके नहाने, खाने, बाल बनाने तक। समय-समय पर जूस लाकर अम्मा के हाथ में देते। अपने और हमारे नहाने की बाल्टी से लेकर तौलिया और कपड़े बाबूजी ही रखते बाथरूम में।
आज उन्हें आंखों से कम दिखाई देने लगी थी। बाबूजी ने उन्हें खुश रखने की बहुत कोशिश की। मगर एक दिन अम्मा हमेशा के लिए हमें छोड़कर चली गई। आधे रह गए बाबूजी अपनी अर्धांगिनी के बिना।
समय अपने तरीके से कट रहा था। इस महीने हमारे स्कूल का परिणाम आया। बाबूजी बच्चों के लिए चिंतित थे। पर उन्होंने ठान लिया कि अम्मा की मेहनत को जाया नहीं होने देंगे।
उस दिन रविवार था। बाबूजी ने हमें तैयार किया, दूध और ब्रेड हाथ में थमाते हुए बोले- मीनू बेटा, चिंटू को सामने पार्क में घुमा लाओ। तब तक मैं रसोई का काम निबटा लूं।कमरे में जाकर देखा तो बाबूजी चिंटू की उधड़ी पैंट सिलने की कोशिश कर रहे थे। आज ऐसा लग रहा था अम्मा पूरी की पूरी बाबूजी में उतर आई हो।
- डॉ. लता अग्रवाल
SARAL VICHAR
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