राजा भोज की राजसभा चल रही थी। द्वारपाल ने अभिवादन किया और बोला महाराज, एक बालक आपसे मिलने की जिद कर रहा है। राजा ने बालक को राजसभा में आने की आज्ञा दी। दस-बारह वर्ष के एक सुंदर बालक ने हंसते हुए राजसभा में प्रवेश किया। राजा ने उससे मुस्कराते हुए पूछा- क्या चाहते हो, कुमार?
बालक ने कहा 'मेरे कुछ सवाल हैं महाराज ! मैंने सोचा राजा भोज का दरबार है वहाँ मेरे सवालों के जवाब जरूर मिलेंगे।
राजा ने कहा-पूछो-पूछो, तुम्हारे सवालों का सही जवाब दिया जाएगा।
बालक ने पूछा- बुद्धि कहाँ रहती है, महाराज दिल में, दिमाग में या सारे शरीर में? सवाल अजीब था। राजा ने महामंत्री से कहा- आप इस प्रश्न का उत्तर दिजिए। महामंत्री ने एक दिन का समय मांगा। वे चिंता में पड़ गए। पता नहीं बालक क्या उत्तर चाहता है? क्यों न उसी से पूछा जाए। रात में वह छिपकर बालक के पास पहुंचे। इधर -उधर की बातों के बाद उन्होंने बालक से प्रश्न का उत्तर पूछा। बालक ने कहा मैं जवाब तभी बताऊंगा जब आप मुझे एक हजार स्वर्ण मुद्राएं दें। महामंत्री ने एक हजार स्वर्ण मुद्राएं देकर प्रश्न का उत्तर जान लिया।
दूसरे दिन वह जब राजसभा में आए, बालक को बुलाया गया और राजा ने महामंत्री को प्रश्न का उत्तर देने का आदेश दिया। महामंत्री ने प्रसन्न मुद्रा में कहा- महाराज, बुद्धि न दिल में रहती है न दिमाग में। वह श्रेष्ठ लोगों में रहती है। बालक ने महामंत्री का उत्तर स्वीकार कर लिया। किंतु उसने झट से दूसरा सवाल दागा। बुद्धि खाती क्या है, महामंत्रीजी? प्रश्न बड़ा मजेदार था। राजा व दरबारी हंस पड़े। महामंत्री ने उसके लिए भी एक दिन का समय मांगा।
रात में महामंत्री फिर बच्चे के पास पहुंचे। उसने कुछ आना कानी की और दो हजार पर सौदा पटाया। अगले दिन दरबार खचाखच भरा था। सब प्रश्न का उत्तर जानने को उत्सुक थे। महामंत्री प्रसन्न हुए। उन्होंने महाराज का अभिवादन करते हुए कहा- महाराज, बुद्धि गम खाती है। बालक ने फिर अपना अंतिम सवाल पूछा। बुद्धि कहाँ बैठती है। महामंत्री ने इसका भी तुरंत उत्तर नहीं दिया। फिर से एक दिन का समय ले लिया।
महामंत्री रात के समय फिर बालक के पास पहुंचे, किंतु इस बार उसने बताने से इंकार कर दिया। उसने कहा मैं राजा भोज के दरबारियों की बुद्धि परखना चाहता हूँ। एक लाख स्वर्ण मुद्राओं पर भी सवाल का उत्तर नहीं बताऊंगा। आप मेरे इस प्रश्न का उत्तर स्वयं दिजिए महामंत्री। राजसभा खचाखच भरी थी। महामंत्री को बालक के प्रश्न का उत्तर देने को कहा। महामंत्री का स्वर लड़खड़ाया। उन्होंने कहा- 'बुद्धि सब जगह बैठती है, महाराज।' राजा भोज ने बालक की ओर देखा। वह बोले महामंत्री का उत्तर ठीक है कुमार? वह बोला- महाराज अगर ऐसा होता तो यह धरती स्वर्ग बन गई होती। आपके राज्य में मेरे पिता जैसे लोग दरिद्र नहीं रह पाते।
राजा कुछ झुंझला कर बोले- 'अच्छा बालक, फिर तुम्हीं बताओ? बुद्धि क्या करती है?' बालक हंस पड़ा। इस प्रश्न का उत्तर नहीं बता सके तो मेरी श्रेष्ठता स्वीकार करनी पड़ेगी राजन!' हाँ, बताओ, मैं तुम्हारी श्रेष्ठता स्वीकार करता हूँ। आदमी आयु से नहीं गुणों से भी बड़ा होता है। राजा ने कहा। 'अच्छा महाराज आपको मेरी श्रेष्ठता स्वीकार है तो सिंहासन से नीचे उतरें और मुझे ऊपर बैठने दें। मैं राजसभा में सबसे ऊंचे आसन पर बैठकर प्रश्न का उत्तर दूंगा। महाराज राजसिंहासन से नीचे उतरे और बालक को सिंहासन पर बैठा दिया। सिंहासन पर बैठकर बालक कभी राजा, कभी मंत्री, कभी राज पंडितों की ओर मुस्करा-मुस्करा कर देखता रहा। उसने बहुत देर तक कुछ नहीं कहा। महामंत्री ने आदेश भरे स्वर में कहा- 'अब प्रश्न का उत्तर क्यों नहीं देते बालक?' सावधान महामंत्री! मैं राजसिंहासन पर बैठा हूँ। बालक ने राजा भोज की ओर देखा और हंस पड़ा- 'क्यों महाराज ! सवाल का उत्तर नहीं मिला? लगता है, राजा भोज के दरबार में विद्वान पंडित इतना भी नहीं समझते।'
महामंत्री चिल्लाए-'हंसी मत करो, प्रश्न का ठीक-ठीक उत्तर दो। उत्तर दे तो दिया, बुद्धि वही करती है जो मैंने किया है। वह बड़े-बड़े राजाओं को राजसिंहासन से नीचे उतार देती है और नीचे बैठे बुद्धिमान को उठाकर सिंहासन पर बिठा देती है। जैसे मैं सिंहासन पर बैठा हूँ। इसलिए बुद्धि सिंहासन पर बैठती है।
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