तेज बारिश, आंधी-तूफान... वह रात मेरे डर को और बढ़ाती जा रही थी। लेकिन वह रात मेरी जिंदगी में एक बड़ा विस्मय लेकर आई...
आज सुबह से ही कुछ अजीब-सा मौसम था। शाम होते-होते तूफान शुरु हो गया था। राजेश अब तक घर नहीं आए थे, सो मैं चिंतित होकर हर दो मिनट में खिड़की के पास देखने चली जाती। इतने में घंटी बजी, मैं दरवाजा खोलने गई तो देखा राजेश थे। रसोई में जाकर चाय-नाश्ता तैयार किया और उनके साथ आकर बैठ गई। हम चाय की चुस्कियां ले रहे थे कि बाहर जोरदार बारिश होने लगी और पल भर में बिजली भी गुल हो गई। खिड़की पर जाकर देखा तो दूर-दूर तक रोशनी नजर नहीं आ रही थी।
मैं और राजेश इस घर में तीन साल पहले रहने आए थे। तब से अब तक यहां केवल ४-५ मकान बने हैं। कुल मिलाकर यहां दूर-दूर बसे ७-८ मकानों की कालोनी है। दिनभर अकेले रहने में मुझे थोड़ा डर लगता है। लेकिन आज ऐसे अजीब मौसम में राजेश के होते हुए भी मन घबरा रहा था। मैं बस आकर बैठी ही थी कि मुख्य दरवाजे पर कुछ हलचल हुई। राजेश उठकर जाने लगे तो मैंने झट से उनका हाथ पकड़कर मना कर दिया। न जाने इस वक्त कौन आया हो...आप दरवाजा मत खोलिए।
'ठीक है शिखा! तुम घबराओ नहीं, मैं खिड़की से देखने की कोशिश करता हूं। मेज पर पड़ी टार्च को उठाते हुए राजेश ने जवाब दिया। खिड़की का एक पल्ला खोलकर वे टार्च से देखने की कोशिश करने लगे। बरामदे में एक बुजुर्ग दम्पति खड़ा था। रोशनी उन पर पड़ते ही वे घबरा गए। इन्होंने सवाल किया कि वे यहां क्यों खड़े हैं और क्या काम है? अपना सिर पोंछते हुए वे बोले, बेटा! हम दोनों काफी भीग गए हैं। अचानक बारिश हुई तो हम अंदर आ गए। माफ कर देना बेटा।
'आप माफी क्यों मांग रहे हैं? आईए, जब तक बारिश नहीं थमती, आप हमारे मेहमान हैं।' राजेश ने दरवाजा खोलते हुए कहा। मुझे चाय बनाने को कहकर वे उनके साथ बातें करने लगे।
राजेश ने उन्हें तौलिया देते हुए उनका नाम पूछा, 'मेरा नाम राधाकृष्ण है और यह मेरी धर्मपत्नी दुर्गा। हम चंदनपुर से आए हैं। मैं वहां एक सरकारी स्कूल में हिंदी पढ़ाता था। बच्चों की शिक्षा के लिए अपने पच्चीस साल दे दिए। चार बरस पहले ही सेवा निवृत्त हुआ हूं। जिंदगी में संतान का सुख प्राप्त नहीं हो सका। आजकल कुछ बच्चों को ट्यूशन पढ़ाकर और पेंशन से घर में दो वक्त की रोटी की व्यवस्था कर लेता हूं।'
उन्होंने निराशा भरे स्वर में जवाब दिया। मैंने चाय मेज पर रखते हुए उनसे पूछा, लेकिन इस वक्त आप लोग यहां कैसे? मेरा मतलब है किसी काम से शहर आना हुआ?'
'हां बेटा! असल में एक हफ्ते पहले शहर के एक समाजसेवी संस्थान ने बुलावा दिया। छोटे से गांव में रहकर भी इतने वर्ष मैंने बच्चों को शिक्षा दी, इस संदर्भ में वे मुझे दस हजार रुपए देकर सम्मानित करना चाहते थे। इस उम्र में संस्थान की तरफ से पैसों की मदद हमारे लिए बहुत बड़ा सहारा थी, सो मैं और मेरी पत्नी यहां चले आए।'
राजेश ने उनसे पूछा कि वहां क्या हुआ। उन्होंने बताया कि संस्थान के उपाध्यक्ष की आकस्मित मृत्यु के कारण कार्यक्रम स्थगित हो गया।
इतने में अचानक राजेश बोल पड़े, 'मास्टरजी! आपको याद है, मैं पांचवी कक्षा में आपसे ट्यूशन पढ़ता था, मेरा हिंदी थोड़ी कमजोर थी। वैसे आपके इतने शिष्य रहे हैं, आप मुझे भूल गए होंगे।'
'नहीं बेटा! मुझे याद नहीं... अब याददाश्त भी साथ नहीं देती।' उन्होंने राजेश के सिर पर हाथ रखकर कहा। जीवन के इतने संघर्ष को देखने के बाद भी उन्होंने गांव नहीं छोड़ा, कैसे उन्होंने शिक्षा के लिए अपना जीवन दे दिया।
बस इन्हीं सब बातों में रात बीत गई। अगले दिन मैं और राजेश उन्हें बस स्टैंड तक छोड़ने गए।
बस के टिकट के साथ राजेश ने एक लिफाफा भी उनके हाथ में रख दिया। दरअसल उनको देने के लिए हम घर से दस हजार रुपए लेकर आए थे। लिफाफे में पैसे देख उन्होंने हैरानी से राजेश की ओर देखा और कहा, बेटे! तुमने अनजान होते हुए भी हमारी मदद की, लेकिन मैं तुमसे पैसे नहीं ले सकता।
राजेश ने उनका हाथ थामते हुए कहा, 'मास्टरजी! मैं अनजान कहां? आपने मुझे शिक्षा का अनमोल तोहफा दिया है। यह तो उनके बदले एक छोटी सी गुरु-दक्षिणा है।' उन्होंने तर आंखों से अपनी पत्नी की ओर देखा और दोनों ने राजेश को गले लगा कहा- मेरे बच्चे नहीं हैं। मेरे इतने सारे शिष्य ही मेरे बच्चे हैं। आज राजेश ने मुझे असली सम्मान दिया है।
उन्हें विदा कर हम घर के लिए निकल पड़े। काफी देर तक हम दोनों चुप रहे। अपनी जिज्ञासा पर अंकुश लगा पाना मेरे लिए कठिन हो रहा था। मैं राजेश से पूछ ही बैठी, 'आपने कभी बताया नहीं कि आप चंदनपुर में रहते थे?'
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