कुछ रूसी वैज्ञानिक अब इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि प्राकृतिक वृद्धावस्था और समय से पहले आने वाली वृद्धावस्था में अंतर है। समय से पहले बुढ़ापे के लिए स्वयं मनुष्य दोषी है।
वैज्ञानिक इस राय पर पहुंचे हैं कि यौवन और शक्ति को बढ़ाए रखने वाला तत्व काम (कार्यशीलता) है। अधिक काम करने से चिंताएं भी कम सताती हैं और शरीर भी एक शिकंजे में कसा रहता है। उसमें आलस्य का ढीलापन नहीं आने वाला।
कुछ लोग उम्र बढ़ जाने पर यह गलती करते हैं कि वे अपना चलना-फिरना, खेत जोतना, बोना, टहलना, घूमना या शरीर के अन्य अंगों से श्रम करना छोड़ देते हैं। काम में न आने से अनेक अंग जंग लगकर अपनी स्वाभाविक कार्यशक्ति छोड़ने लगते हैं। उन्हें निष्क्रिय रहने की ही आदत पड़ने लगती है।
एक क्लर्क अपना काम करते हुए जो बहुत ज्यादा कठिन नहीं होता, 70 वर्षों तक ठीक चलता रहता है। परंतु ज्यों ही वह उसे छोड़कर अवकाश ग्रहण करता है तो धीरे-धीरे उसके शरीर के अवयव ढीले होकर काम करने में असमर्थ हो जाते हैं और वह 75-80 का होते होते मर जाता है। बढ़ती आयु में शारीरिक या मानसिक कार्य छोड़ देने वालों में से बहुतों का ये ही बुरा हाल होता है।
अवकाश ग्रहण करने के बाद व्यक्ति को काम-काज पूरी तरह नहीं छोड़ना चाहिए। उसे कुछ हल्के काम जैसे- टहलना, घूमना और गौर (गाय) सेवा, घर की सफाई, अपने वस्त्र धोना और बागवानी जैसे शौकिया काम और संभव हो तो व्यायाम, मालिश भी करना चाहिए।
शरीर को अधिक से अधिक चलाईए, श्रम करते रहिए। एक व्यक्ति जो मैसूर निवासी सर विश्वेश्वरेया शतायु होते हुए भी 50 वर्ष के लगते हैं। इसका कारण है वे व्यायाम और मित्ताहार बताते हैं।
१) नित्य तेल मालिश
२) व्यायाम
३) छाछ
४) मित्ताहार (सच्ची व परिपक्क भूख लगने पर ही खाना खाएं।)
भूख से जितना अधिक खाते हैं, हम उतना ही विष खाते हैं।
ब्रह्मचर्यपूर्वक जीवन जीने से भी शक्ति बढ़ती है। ओजस् निखरता है और आयु लम्बी होती है। सुख के लिए अपना जीवन-तत्व निचोड़ते रहने वालों को असमय मौत का शिकार होना पड़ता है।
क्रोध, उत्तेजना, चिड़चिड़ापन, जल्दबाजी भी जीवन के लिए उतनी ही हानिप्रद हैं जितना किसी विष के प्रत्यक्ष प्रयोग से। दीर्घ जीवन की कुंजी है आपकी मानसिक प्रसन्नता। अतः उसे किसी कीमत पर न लुटाईए।
ये नियम सस्ते और सुलभ हैं। लोग जीवन जीने के नियमों को जानबूझकर लात मार रहे हैं। ईश्वर को अपराधी ठहराने की बात न्यायसंगत नहीं लगती। यह भी दोष देना उचित नहीं कि आज की परिस्थिति वैसी नहीं रहीं, जैसी हमारे पूर्वजों को प्राप्त थीं। दूध-घी का अभाव दीर्घजीवी होने के मार्ग में उतना बाधक नहीं जितना आज लोगों की गलत दिनचर्या तथा दोषपूर्ण आहार-विहार हैं।
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