साधना का पहला चरण है -अस्वाद, अक्रोध, अलोभ, आहार शुद्धि। कोई मुझसे पूछे कि हम बड़ी साधना करना चाहते हैं, अंतःकरण को पवित्र बनाना चाहते हैं। कोई सीधे-सीधे प्रश्न पूछते हैं कि हमारा ध्यान नहीं लगता। तो मैं यही कहूंगा कि ध्यान नहीं लगता तो धारणा कर। प्राणायाम कर। आसन सिद्ध कर।
नियम और यम पर आ। धारणा कभी की नहीं, संकल्प और विचार का मूल क्या है हम पहचानते नहीं। सीधे ध्यान कैसे होगा? अब तो ध्यान बिक भी रहा है। उस पर प्रयोग हो रहे हैं। अब तो लोग २-४ दिनों में टीचर बन जाते हैं, गुरु बन जाते हैं। फिर हीलिंग करने लग जाते हैं। ५-६ दिन के पैकेज के बाद आप खुद गुरु बन जाओगे। ध्यान क्या ३ दिन में हो जाता है? लोग कोर्स कर लेते और मास्टर बन जाते। ३ दिन पहले शिष्य थे अब टीचर बन गए।
हमारे महाराजजी के पास कोई आए। बोले महाराज साधना में सबसे कठिन क्या है? वह आदमी धीरे से पूछ रहा था कि कोई सुन न ले। महाराज ने भी होले से बताया- सबसे कठिन है मास्टर के साथ रहना। मास्टर टोका-टाकी करता रहेगा। वैसे एक बात कहूं- सभी मास्टर भी नहीं होते, कुछ ही मास्टर होते हैं। साधना की फलश्रुति, अंतःकरण की पवित्रता, भोग का चरम, भोग का अर्थ है साधन। साधन हैं तभी तो छोड़ेंगे। जिसने साधन देखा हो, वैभव देखा हो, ऐश्वर्य देखा हो तभी तो छोड़ेगा।
निर्जला व्रत के लिए जैसे कहा गया है कि सुंदर सरोवर के समीप बैठकर करना चाहिए। फल-फूल हों, पकवान, व्यंजन, मिष्ठान हों और मीठा जल रखा हो और आप कहें हमारा निर्जला व्रत है। ध्यान न जाए चीजों पर। तभी तो व्रत है। कुछ है ही नहीं और हम कहें हमने त्याग कर दिया है।
गुरु ने कहा सारे सुख छोड़कर पाना क्या चाहते हो? तो कहा गया कि हम भगवत् सिद्धि करना चाहते हैं। भगवत् प्राप्ति करना चाहते हैं। सिद्धियां हमारे आस-पास है। कोई उपाय बताओ आत्म-साक्षात्कार का।
गुरु ने कहा- साधना का पहला चरण है- आहार शुद्धि। अस्वादता ....। आहार का अर्थ केवल भोजन नहीं है। आहार याने कानों से जो ले रहे हैं, जो आंखों से देख रहे हैं। जिसने अपने भोजन के समय को, जागने को ठीक कर लिया है वह सफल है। कुछ नियम छोटे छोटे हैं। इनको ठीक कीजिए। भोजन का समय ठीक कीजिए, जल पीने का समय ठीक कीजिए। जागने-सोने का समय ठीक करो। इससे आध्यात्मिक स्वास्थ्य अच्छा होता है तो भीतर की समृद्धि हाथ लग जाएगी। भीतर के खजाने, भीतर की ऊर्जा उपलब्ध कर लोगे।
गुरु ने एक-एक चीज बताई कि प्रकृति के साथ जी लो। जैसे परिंदे प्रकृति के साथ चलते हैं। हां, वे पशु कम चलते हैं जो आदमी की सोहबत में रहते हैं। गली का पैट नेचर के हिसाब से चलेगा। निद्रा कब हो, कितनी हो, जगे कितना? आहार कब हो, जल कितना लें। गुरु ने यह सब बातें बताई। ये साधना की आरंभिक बातें हैं। ऋतु के अनुसार कितना आहार लें।
मैंने भी बहुत बार कहा है कि थाली में जब भोजन होता है तब पहले आंखें उसे देखती हैं। सबसे पहले आंखें भोजन करती हैं, फिर हाथ उसे छूते हैं, नासिका गंध लेती है। फिर भोजन जीभ में चला गया और उदर में सरक गया। भोजन वह नहीं जो भूख मिटाए। जो तुष्टि-पुष्टि, संतुष्टि, तृप्ति, रूपवृद्धि, बलवृद्धि, जीवन निर्माण करे। जिससे दिमाग अच्छा हो। आहार से विकार भी होता है। बुद्धि भ्रष्ट न हो जाए ऐसा भोजन नहीं करो। घर में भोजन बने और ठाकुर को अर्पण करो तो वह भोजन प्रसाद बन जाएगा। तुलसीदल डालिए तो भोजन की पूरी विकृति दूर हो जाएगी।
आहार ठीक करो। मात्राएं ठीक करो। जैसे आहार की मात्रा, निद्रा की मात्रा। जिंदगी बेमेल नहीं होनी चाहिए। बहुत ज्यादा सो रहे हैं या बहुत ज्यादा जग रहे हैं। आजकल पढ़ने वाले बच्चे रात को देर तक जागकर पढ़ते हैं और सुबह देर तक सोते हैं। रात को एनर्जी ड्रिंक या कॉफी लेते हैं। फिर पढ़ाई करते हैं। ऐसा ऋषि-मुनियों ने कभी नहीं किया। मेधावी, प्रतिभावान जो बालक रहे हैं वे कभी इस तरह नहीं पढ़ते।
आपको अपनी नींद पूरी करनी होगी। साधना में लोग कहते हैं कि वे रात को २ बजे उठ जाते हैं। भाई, फिर नींद कब पूरी करोगे? साधना में निद्रा की मात्रा बहुत आवश्यक है। आहार की मात्रा, जल की मात्रा, विचार की मात्रा। वैसे तो हर जातक की अलग अलग प्रकृति होती है। लेकिन फिर भी गुरुजनों के पूछकर साधना कीजिए।
लंबे समय तक साधना करो और उस ईश्वर को बाध्य कर दो कि वह प्रकट हो जाए। मार्ग में अनेक आकर्षण मिलेंगे। अगर नदियां ठहर जाएं तो कभी पूर्ण नहीं होती, सागर से मिल नहीं पातीं। साधक को भी आकर्षणों में उलझना नहीं चाहिए।
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