"अशोक वाटिका" में जिस समय रावण क्रोध में भरकर, तलवार लेकर, सीता माँ को मारने के लिए दौड़ पड़ा, तब हनुमान जी को लगा, कि इसकी तलवार छीन कर, इसका सर काट लेना चाहिये!
किन्तु, अगले ही क्षण, उन्हों ने देखा "मंदोदरी" ने रावण का हाथ पकड़ लिया! यह देखकर वे गदगद हो गये! वे सोचने लगे, यदि मैं आगे बड़ता तो मुझे भ्रम हो जाता कि यदि मैं न होता, तो सीता जी को कौन बचाता? बहुधा हमको ऐसा ही भ्रम हो जाता है, मैं न होता, तो क्या होता?
परन्तु ये क्या हुआ? सीताजी को बचाने का कार्य प्रभु ने रावण की पत्नी को ही सौंप दिया! तब हनुमान जी समझ गये, कि प्रभु जिससे जो कार्य लेना चाहते हैं, वह उसी से लेते हैं!
आगे चलकर जब "त्रिजटा" ने कहा कि "लंका में बंदर आया हुआ है, और वह लंका जलायेगा!" तो हनुमान जी बड़ी चिंता मे पड़ गये, कि प्रभु ने तो लंका जलाने के लिए कहा ही नहीं है, और त्रिजटा कह रही है कि उन्होंने स्वप्न में देखा है, एक वानर ने लंका जलाई है! अब उन्हें क्या करना चाहिए? जो प्रभु इच्छा!
जब रावण के सैनिक तलवार लेकर हनुमान जी को मारने के लिये दौड़े, तो हनुमान ने अपने को बचाने के लिए तनिक भी चेष्टा नहीं की, और जब "विभीषण" ने आकर कहा कि दूत को मारना अनीति है, तो हनुमान जी समझ गये कि मुझे बचाने के लिये प्रभु ने यह उपाय कर दिया है!
आश्चर्य की पराकाष्ठा तो तब हुई, जब रावण ने कहा कि बंदर को मारा नहीं जायेगा, पर पूंछ मे कपड़ा लपेट कर, घी डालकर, आग लगाई जाये, तो हनुमान जी सोचने लगे कि लंका वाली त्रिजटा की बात सच थी, वरना लंका को जलाने के लिए मैं कहां से घी, तेल, कपड़ा लाता, और कहां आग ढूंढता? पर वह प्रबन्ध भी आपने रावण से करा दिया! जब आप रावण से भी अपना कार्य करा लेते हैं, तो मुझसे करा लेने में आश्चर्य की क्या बात है!
इसलिए सदैव याद रखें, कि संसार में जो हो रहा है, वह सब ईश्वरीय विधान है! हम और आप तो केवल निमित्त मात्र हैं! इसीलिए कभी भी ये भ्रम न पालें कि...
मैं न होता, तो क्या होता?
सूर्य उगता है, डूबता भी है। तारे घूमते हैं; मौसम परिवर्तित होते हैं।
प्रकृति का विराट कर्म चलता है। परंतु बिलकुल शान्त, अकर्म जैसा...
वहां कोई कर्त्ता नहीं है।
न सूरज उगने के लिए कोई प्रयत्न करता है, न चांद तारे चलने के लिए कोई आयोजन करते हैं।
न फूल खिलने के लिए कोई व्यवस्था जुटाते हैं, न नदियां सागर की तरफ बहने के लिए किसी कर्त्ता के भाव से भरती हैं।
मनुष्य को छोड़ कर कर्म कहीं भी नहीं है।
गति तो बहुत है, क्रिया बहुत है... लेकिन कर्त्ता का बोध कहीं भी नहीं है। एक इंसान ही- "मैंने किया" कहता रहता है।
इस कर्तापन ने ही आपकी सहजता और सरलता छीन ली है।
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