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स्वर्ग इंतज़ार कर लेगा। SWARG INTJAAR KAR LEGA | HEAVEN WILL WAIT | SARAL VICHAR


स्वर्ग इंतज़ार कर लेगा। SWARG INTJAAR KAR LEGA | HEAVEN WILL WAIT - www.saralvichar.in
 

साधू वासवानीजी को कभी स्वर्ग के सुखों की चाह नहीं थी। उनकी मुक्ति, मोक्ष या जन्म-मरण के चक्रों से मुक्त होने की कोई कामना नहीं थी।

किसी ने उनसे जब पूछा था- क्या मुक्ति से भी बढ़कर कुछ और है?

वे बोले- मुझे मुक्ति नहीं चाहिए। मैं तो फिर जन्म लेना चाहता हूं ताकि दुःखियों और दर्द से कराहते लोगों के कुछ काम आ सकू।

साधू वास्वानी हमें हमेशा उस संत की याद दिलाया करते हैं जिसने ईश्वरीअ स्नेह के कारण मानवता की सेवा करने का व्रत ले लिया था। उनका जीवन सादगी और निःस्वार्थ सेवा का उदारहण था।

उनका जीवन ऐसे ही स्नेहपूर्ण कार्यों के उदाहरणों से भरा हुआ था। उनके जीवन का दर्शन बहुत सरल था । प्रसन्नता प्राप्त करने की उनकी विधि थी- पहले दूसरों को प्रसन्न करो, तो तुम स्वयं प्रसन्न हो जाओगे । उनका संपूर्ण जीवन साक्षी है कि ईश्वर स्वयं उनके रुप में मानव स्वरुप धारण करके आए थे । आज भी उनके चित्र हमें नई प्रेरणा से भर देते हैं। उनकी आत्मीय पवित्र रोशनी हमें दिव्य आशाओं से भर देती है। वे मनुष्य के रूप में स्वयं ईश्वर थे।

उच्च आदर्श


साधू वासवानीजी ने बचपन में ही मांसाहार का त्याग कर दिया था। मांसाहार सिंध में एक आम बात थी। जिसका उन्होंने जमकर विरोध किया । वे शाकाहार को बढ़ावा देने लगे । उनसे प्ररित होकर कई मांसाहार खाने वाले उनके भक्त गणों ने मांसाहार का त्याग कर शाकाहारी बन गए।

'सखी सत्संग' धीरे-धीरे और शांत तरीके से अपना आंदोलन छेड़ रहा था । समाज में साधू वासवानी के जादू ने अपना असर दिखाना शुरु कर दिया।

सबके प्रति करुणा


बालक वासवानी रोज सुबह जल्दी उठकर आर्यों की तरह सूर्यनमस्कार करते थे। उनका विश्वास था के सूर्य ही मनुष्यों को शक्ति और जीवन देता है। वे एकांत में शांति से अपना समय बिताना पसंद करते थे । जब कभी खाने बैठते और बाहर से किसी याचक की पुकार आती तो वे अपना खाना उसे दे आते । ठंडी रातों में उन्हें जागता देखकर मां पूछती, 'बेटा, क्या बहुत ठंड लग रही है, और कम्बल दूं? तो वे बड़ी बेचैनी से कहते, 'मां मैं तो उन बेघर और बेसहारा लोगों के बारे में सोच-सोच कांप रहा हूं कि भला वे कैसे ये सब सहते होंगे ?" 


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एक विलक्षण विद्यार्थी

साधू वासवानी जब डी.जे. सिंध कॉलेज में पढ़ते थे तो एक दिन उनकी क्लास को एक निबंध लिखने को कहा गया। प्रिंसिपल श्री हसकेथ जब साधू वासवानी का निबंध जांच रहे थे तो उन्हें लगा कि उसके कुछ अनुच्छेद डॉ. ऐनी बेसैन्ट के लेखों में से लिए गए हैं। उन्होंने सोचा कि कॉलेज का कोई विद्यार्थी इतनी शुद्ध और दोष रहित अंग्रेजी कैसे लिख सकता है। प्रिंसीपल ने साधू वासवानी को बुलाकर कठोरता से कहा, 'तुम जैसा इमानदार लड़का यह काम कैसे कर सकता है।' साधू वासवानी को प्रिंसीपल की बात समझ में नहीं आई ।        प्रिसीपल ने उन्हें कड़ी दृष्टि से देखते हुए कहा- 'एनी बेसेंट के लेखन का कुछ हिस्सा तुमने अपना बना कर निबंध में डाल दिया है।'

साधू वासवानी ने हैरान होते हुए कहा कि उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया है। लेकिन प्रिंसीपल ने उनकी बात नहीं मानी । साधू वासवानी ने प्रिंसीपल के सामने उनकी ही पसंद का एक और निबंध लिखकर दिया तो प्रिंसीपल उस गुणी छात्र की प्रतिभा देखकर हैरान रह गए।

उस दिन के बाद साधू वासवानी अपने प्रिंसीपल तथा कॉलेज के दूसरे अध्यापकों की नज़र में हमेशा ऊंचे रहे।

बाद में साधू वासवानी ने जब बी.ए. की परिक्षा पास की और मुंबई युनिवर्सिटी का एलिस स्कॉलरशिप पाया तो प्रिंसीपल जैकसन ने उनको विशेष रूप से डबल फैलोशिप देकर उनका सम्मान बढ़ाया।

तरुण प्रोफेसर


बी.ए. की परिक्षा के बढ़िया परिणाम के बाद वे एम.ए. की पढ़ाई कर रहे थे। वे हर हफ्ते कुछ घंटों के लिए उन बच्चों को लेक्चर भी देते थे वे उन बच्चों से कुछ ही साल बड़े थे । उन्हें एम.ए. की डिग्री भी मिल गई। उनकी मां चाहती थीं कि उनका बेटा अपने चाचा टेकचंद की तरह वकील बनकर वकालत करे । लेकिन उनके बेटे की आकांशाएं संसार से हटकर थीं ।

-जे.पी. वासवानी

 

 

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