मानव पुरुषार्थ
(चाणक्य और मगध नरेश चंद्रगुप्त)
महर्षि व्यास हाथ उठा-उठाकर कहते हैं कि हे मनुष्य, तू धर्म का पालन कर। इसी से तुम्हें काम, अर्थ, मोक्ष की प्राप्ति होगी। पर उनकी कोई नहीं सुनता ।
राजा हरिशचंद्र ने धर्म का पालन किया। उनकी कहानी तो सभी जानते हैं।
अर्थ
धर्म, अर्थ और काम (कामनाएं, इच्छाएं) में से किसी एक का भी अधिक सेवन अनर्थ करता है। धन अर्जित करो, क्योंकि वह पुरुषार्थ है। किंतु अधर्म से अर्जित अर्थ (धन) अनर्थ है।
सुख का मूल (नींव) धर्म है। धर्म का मूल (नींव) अर्थ है। अर्थ का मूल राज्य है ।
एक बार चंद्रगुप्त से चाणक्य ने पूछा- मगध विजय से पहले तुम गांव में ठहरे थे । वहां के लोगों से तुमने अन्न लिया था। क्या तुमने अन्न का मूल्य चुकाया था ?
चंद्रगुप्त- नहीं।
चाणक्य- क्या समझकर तुमने वह अन्न ग्रहण किया ? दान या दक्षिणा? क्योंकि दान वह मूल्य है जो सामाजिक कर्तव्य (दान देना समाज का कर्तव्य है।) के रुप में दिया जाता है और दक्षिणा वह मूल्य है जो किसी सेवा के बदले में दी जाती है। तुमने क्या लिया था। ध्यान रहे चंद्रगुप्त, हर वस्तु का मूल्य है। हर सेवा का मूल्य है और जिसका भी मूल्य है, वह अर्थ है। धर्म और काम, अर्थ पर ही निर्भर हैं। इसलिए अर्थ , व्यवहार (पैसों का व्यवहार) धर्म पूर्वक होना चाहिए।
बिना मूल्य किसी दूसरे का द्रव्य लेना याने स्वयं का ही नाश करना है।
मेरे लिए व्यक्ति नहीं, समाज महान है। मेरी निष्ठा न तो चंद्रगुप्त में है और न ही साम्राज्य में है। मैं सिर्फ समाज के बारे में सोचता हूं। समुद्र से जल, भाप बनकर बादल बन जाता है और वही बादल नदियों, सागर में मिल जाता है । वही जल अर्थ (धन) है। तुम्हें राज्य से कर मिलता है, इसी से तुम राजा हो और तुम्हारा राज्य है। यह समाज ही तो सागर है ।
(चंद्रगुप्त को चाणक्यजी की वह बातें चुभती थीं कि मैं कोई कठपुतली नहीं हूं जो इनके कहने पर ही चला करुं । मेरी तो यहां कोई मर्जी नहीं चलती। इससे तो मुझे राजा ही नहीं बनना है।)
वे विष्णुगुप्त (चाणक्यजी) से बोले- आपने मुझे एक स्वप्न दिया था, चक्रवर्ती सम्राट होने का। किंतु यहां आने पर पता चला कि राजा की हैसियत वेतन लेने वाले नौकर से अधिक नहीं है।
चाणक्य जी ने कहा- तूने ठीक ही समझा है, चंद्रगुप्त । मेरे लिए सम्राट वेतन लेने वाले नौकर से अधिक नहीं है । तुझे सुखी होना है तो जब तक तेरे साम्राज्य में एक भी व्यक्ति भूखा है, तुम सुखी नहीं हो सकते ।
सुख, शिक्षक और सम्राटों के भाग्य में नहीं होता । मैंने तुम्हें साम्राज्य देने का वचन दिया था, सुख देने का नहीं। तू भूल गया है कि प्रजा के हित में ही राजा का हित है। तुमने साम्राज्य पाया है तो सुख पाने का रास्ता भी तुम्हारे पास है।
यह राज्य तुम्हें सौंपा जाता है । तुम इसके संचालक हो ।
चंद्रगुप्त ने अपने गुरु से अर्थ का ऐसा पाठ पढ़ा कि अपने जीवन के अतिम दिनों में जब भयंकर अकाल पड़ा हुआ था, उन्होंने ४० दिनों तक अन्न ग्रहण नहीं किया, क्योंकि लोगों के पास खाने को अन्न नहीं था।
ऐसे महान थे गुरु और महान गुरु के महान शिष्य । क्या हम ऐसा बन सकते हैं??? अपने से प्रश्न करो....
SARAL VICHAR
0 टिप्पणियाँ