महर्षि व्यास बार-बार कहते हैं, "हे मनुष्य, धर्म का पालन करो। इससे तुम्हें काम, अर्थ और मोक्ष सब मिलेंगे।" पर लोग उनकी बात नहीं मानते।
जीवन का आधार पुरुषार्थ है।
पुरुषार्थ का मतलब है जीवन का लक्ष्य।
लक्ष्य वह होता है जो सही दिशा में हमें आगे बढ़ाए।
लक्ष्य अलग-अलग हो सकते हैं—संपत्ति, सुरक्षा, समाधान या धर्म और पुरुषार्थ।
मनुष्य, तुम धर्म का पालन करो। यही तुम्हारे लिए सभी सुखों का रास्ता है।
राजा हरिशचंद्र ने धर्म का पालन किया। उनकी कहानी तो सभी जानते हैं।
धन कमाना ठीक है, क्योंकि यह पुरुषार्थ है। लेकिन अगर अधर्म से धन कमाया जाए तो वह हानिकारक है।
सुख का मूल धर्म है। धर्म का आधार अर्थ है और अर्थ का आधार राज्य या व्यवस्था है। हमें हमेशा सही तरीके से, न्यायपूर्वक और धर्म के अनुसार धन कमाना चाहिए।
एक बार चंद्रगुप्त से चाणक्य ने पूछा- मगध विजय से पहले तुम गांव में ठहरे थे । वहां के लोगों से तुमने अन्न लिया था। क्या तुमने अन्न का मूल्य चुकाया था ?
चंद्रगुप्त- नहीं।
चाणक्य- क्या समझकर तुमने वह अन्न ग्रहण किया ? दान या दक्षिणा? क्योंकि दान वह मूल्य है जो सामाजिक कर्तव्य (दान देना समाज का कर्तव्य है।) के रुप में दिया जाता है और दक्षिणा वह मूल्य है जो किसी सेवा के बदले में दी जाती है। तुमने क्या लिया था। ध्यान रहे चंद्रगुप्त, हर वस्तु का मूल्य है। हर सेवा का मूल्य है और जिसका भी मूल्य है, वह अर्थ है। धर्म और काम, अर्थ पर ही निर्भर हैं। इसलिए अर्थ , व्यवहार (पैसों का व्यवहार) धर्म पूर्वक होना चाहिए।
बिना मूल्य किसी दूसरे का द्रव्य लेना याने स्वयं का ही नाश करना है।
मेरे लिए व्यक्ति नहीं, समाज महान है। मेरी निष्ठा न तो चंद्रगुप्त में है और न ही साम्राज्य में है। मैं सिर्फ समाज के बारे में सोचता हूं। समुद्र से जल, भाप बनकर बादल बन जाता है और वही बादल नदियों, सागर में मिल जाता है । वही जल अर्थ (धन) है। तुम्हें राज्य से कर मिलता है, इसी से तुम राजा हो और तुम्हारा राज्य है। यह समाज ही तो सागर है ।
(चंद्रगुप्त को चाणक्यजी की वह बातें चुभती थीं कि मैं कोई कठपुतली नहीं हूं जो इनके कहने पर ही चला करुं । मेरी तो यहां कोई मर्जी नहीं चलती। इससे तो मुझे राजा ही नहीं बनना है।)
वे विष्णुगुप्त (चाणक्यजी) से बोले- आपने मुझे एक स्वप्न दिया था, चक्रवर्ती सम्राट होने का। किंतु यहां आने पर पता चला कि राजा की हैसियत वेतन लेने वाले नौकर से अधिक नहीं है।
चाणक्य जी ने कहा- तूने ठीक ही समझा है, चंद्रगुप्त । मेरे लिए सम्राट वेतन लेने वाले नौकर से अधिक नहीं है । तुझे सुखी होना है तो जब तक तेरे साम्राज्य में एक भी व्यक्ति भूखा है, तुम सुखी नहीं हो सकते ।
सुख, शिक्षक और सम्राटों के भाग्य में नहीं होता । मैंने तुम्हें साम्राज्य देने का वचन दिया था, सुख देने का नहीं। तू भूल गया है कि प्रजा के हित में ही राजा का हित है। तुमने साम्राज्य पाया है तो सुख पाने का रास्ता भी तुम्हारे पास है।
यह राज्य तुम्हें सौंपा जाता है । तुम इसके संचालक हो ।
चंद्रगुप्त ने अपने गुरु से अर्थ का ऐसा पाठ पढ़ा कि अपने जीवन के अतिम दिनों में जब भयंकर अकाल पड़ा हुआ था, उन्होंने 40 दिनों तक अन्न ग्रहण नहीं किया, क्योंकि लोगों के पास खाने को अन्न नहीं था।
ऐसे महान थे गुरु और महान गुरु के महान शिष्य ।
मनुष्य का धर्म केवल धार्मिक क्रियाओं तक सीमित नहीं है। धर्म का अर्थ है कर्तव्य, नैतिकता और सही मार्ग पर चलना, जो जीवन में संतुलन, न्याय और समाज के कल्याण के लिए आवश्यक है। इसे हम कुछ मुख्य बिंदुओं में समझ सकते हैं:
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स्वयं के प्रति धर्म – अपने शरीर, मन और बुद्धि का सही उपयोग करना। जैसे अध्ययन करना, मेहनत करना, स्वास्थ्य का ध्यान रखना।
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परिवार के प्रति धर्म – माता-पिता, पत्नी, बच्चों और घरवालों के प्रति कर्तव्य निभाना।
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समाज के प्रति धर्म – समाज में न्याय, सहयोग और दूसरों के अधिकारों का सम्मान करना।
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ईश्वर या उच्च शक्ति के प्रति धर्म – श्रद्धा, भक्ति और सत्य के मार्ग पर चलना।
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स्वाभाविक धर्म – ईमानदारी, सहानुभूति, दया और दूसरों के प्रति उचित व्यवहार।
मनुष्य का धर्म है सत्य और न्याय के अनुसार जीवन जीना, अपने और दूसरों के हित में कर्म करना, और किसी भी काम में संतुलन बनाए रखना।
SARAL VICHAR
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धर्म, Purusharth, Artha, Raja Harishchandra, ChandraGupt, Chanakya, Ethics, Society, Leadership, Sukh, Rajneeti, Moral Values
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