इस बार शरद घर से आया तो उसका मन
कुछ परेशान था। वह हॉस्टल में अपने कमरे में लेटा था। उसे एक दिन की अपनी
बात याद आ रही थी जब उसके सिर में दर्द हो रहा था। मम्मी ने कहा था, 'लेट
जा बेटा, सर दबा दूं। वह माँ की गोद में सिर रखकर लेट गया था। मम्मी की
ऊंगलियों का दबाव कनपटियों, भौहों के ऊपर पड़ने लगा था। कुछ देर बाद
ऊंगलियों का दबाव तो कम हो गया मगर हथेलियाँ चेहरे पर घूमने लगीं-ममतामयी
स्पर्श। तभी शरद ने अपने गाल पर दो गर्म बूँदें गिरते महसूस किया। क्योंकि
उस समय उसकी आँखें बंद थीं। वह चौंका मम्मी, आप रो रही हैं? वे बोलीं-'नहीं
रे' और मुस्करा पड़ी थीं। वह मुस्कान ऐसी थी जैसे किसी छोटे बच्चे के मुख
पर रंगे हाथ चोरी करते पकड़े जाने पर आती है। साथ ही उसने यह भी महसूस किया
था कि उनकी हथेलियों और ऊंगलियों में एक सख्त खुरदरापन आ रहा है। ऐसी
खरखराहट तो घर-घर बर्तन माँजने वाली या पत्थर तोड़ने वाली के होती हैं।
कहाँ गई इन हाथों की कोमलता। शरद अब बच्चा नहीं था। मेडिकल थर्ड ईयर का
विद्यार्थी था। कहाँ से आया उनके हाथों में यह उबड़-खाबड़ खुरदरापन, वह समझ
सकता था । उसने कहा था, 'मम्मी थोड़ा आराम भी किया करो। दिन रात पिली रहती
हो।' बड़ी मेहनत से मम्मी मुस्कराई थी, 'बेटा, माँ बनना भी एक साधना है।
बच्चे को जन्म देना, उसके खाने-पीने, कपड़े का इंतजाम तो आम जिम्मेदारी
होती है, मगर अच्छे संस्कार, मूल्यों, अच्छी जीवन शैली, अपने पैरों पर खड़े
होने लायक कामयाब उच्च शिक्षा दिलाना वह भी एक निम्न मध्यम वर्ग या मध्यम
वर्ग के लोगों के लिए एक चुनौती है, मिशन है और छोड़, तुझे ये सब फिक्र
नहीं करना है। तू मस्त रह। अपनी पढ़ाई कर, कामयाब डॉक्टर बनना है।
शरद
उसी घटना के बारे में सोच रहा था । टेबल पर मम्मी की डायरी पड़ी हुई थी।
बड़ी मुश्किल से माँग कर लाया था। बालहठ कर बैठा था, आपकी डायरी ही तो मुझे
कम्पनी' देगी हॉस्टल में।' आज वही डायरी पढ़ने बैठा है शरद।
10 जून 2000, आज रात काफी देर से आए हालांकि आजकल प्राय: देर से आते हैं। मगर आज तो आते ही निढाल पड़गए।
खाना मांगने की भी ताकत नहीं होगी। मेरी तो आँख लग गई इंतजार में कब आए,
कब उन्हीं कपड़ों में ही बिस्तर पर पसरे, पता नहीं चला। रात को तीन बजे
इनके खर्राटों से मेरी नींद खुली। मैं उनका चेहरा देखती रही- कोल्हू का
बैल दिन भर काम करके आराम कर रहा हो जैसे...सपना देखना आसान है मगर पूरा
करना, ओह! अपना पूरा वर्तमान झोंकना पड़ता है... और फिर इनके सपने मेरे भी
सपने हैं। ये अकेले ही क्यों पिसते रहें? गृहस्थी के इस जुए में एक ही बैल
क्यों जुते? मैं भी क्यों न फिफ्टी परसेंट शेयर करूं।
11 जुलाई 2003,
बच्चों
को अच्छी और सार्थक शिक्षा दिलाना एक सपना-केवल सोचने और बैठने या सारा इन
पर छोड़ने से पूरा नहीं होता। कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा। इतनी बड़ी
दुनिया है, कठोर मेहनत और ईमानदारी से कमाने के बहुत से क्षेत्र हैं। आज की
औरत बहुत आगे बढ़ चुकी है।
कल शाम रीना से इस बारे में चर्चा की।
बोली. 'यार दीपिका, घर में आराम कर। यह तो पति की जिम्मेदारी है। तू क्यों
अपनी हड्डी गलाएगी।' मगर उसकी बात मुझे जँची नहीं। मेरे मन ने अपनी दिशा तय
कर ली है।
18 अक्टूबर 2005
आज बहुत थकावट लग रही है। शरीर
टूट रहा है। काम पर से लौटी हूँ। आते ही रसोई में जुतना है... हे भगवान,
औरत को भी आराम नहीं है। परसों नीरू की मम्मी कह रही थी दीपिका, कभी अपनी
देह देखी है? कुछ खाती नहीं क्या? इतनी दुबली? कोई बीमारी लग गई क्या?
डॉक्टर को दिखा भाई ।'
बहुत दिनों बाद खड़ी हुई शीशे के सामने । और
दिन तो मशीनी दीपिका खड़ी होती थी। वाकई मैं दुबली तो हुई हूँ। सारे ब्लाऊज
ढीले हो गए हैं। कोई बात नहीं- लड़ाई के मैदान में सिपाही की निगाह
मोर्चे पर होती है- अपने घावों पर नहीं।
20 मई 2007
आज मन खुशी से
नाच रहा है। शरद प्री-मेडिकल में सलेक्ट हो गया। इसके पापा के तो पैर ही
जमीन पर नहीं पड़ रहे हैं। बेटी शारदा भी खुशी से नाच रही है। वह शरद से
डॉक्टर बनने पर पहली कमाई की लिस्ट बना रही है। चिंता अंदर से यह भी है कि
शारदा अभी बी.कॉम फाईनल में है। उसे कैट की परिक्षा देनी है, एम.बी.ए. के
लिए कोचिंग लेनी है, पचास हजार का इंतजाम तो करना ही है। कोई बात नहीं,
भगवान भी मेहनतकश का साथ देता है। यह दिन भी तो उसी ने दिखाया है।
15 नवम्बर 2009
सारी
हड्डियाँ बुरी तरह दुख रही हैं। आराम करने को जी चाह रहा है। मगर आराम
किया तो पैसे कैसे आएंगे। पैसे नहीं आएंगे तो सपना टूट जाएगा, बच्चों का
भविष्य...ना...ना। दो गोली डिस्प्रिन की लेनी पड़ेगी। ‘इनसे क्या कहूँ, ये
तो खुद ही रेल बने रहते हैं। यह इनके प्रतिकूल ग्रह नक्षत्रों का दोष है कि
इनकी" मनी जेनरेटिंग कैपेसिटी कम होती जा रही है, लोड मुझ पर आ रहा है।
कभी-कभी तो बैलगाड़ी हिचकोले खाने लगती है।
आज ही तो शारदा की
एम.बी.ए. की कोचिंग के लिए सत्तर हजार जमा करके आई हूँ। कैरियर लॉचिंग
इंस्टीट्यूट में। और चाहे कोई कुछ भी कहे- मैं तो कोई फर्क नहीं करती
बेटा-बेटी में। पता नहीं कैसे लोग कोखजायों में फर्क कर पाते हैं।
16 अप्रेल' 2011
आज
बस पकड़ते समय गिर पड़ी। गनीमत है कि पीछे से कोई बस आदि नहीं थी। वरना
जान तो गई थी। काम पर से लौटी तो शुभ समाचार मिला- शारदा का एम.बी.ए. में
सिलेक्शन हो गया। उसे लखनऊ मिला है। ईश्वर ने फिर सुन लिया। अंदर से
सोचती हूँ, कितनी अजीब स्थिति है- एक तरफ बेटी के सिलेक्शन की बेइंतहा
खुशी, तो दूसरी ओर कर्ज से घिरे गृहस्थी में कर्ज का इजाफा। कोई बात नहीं,
भगवान हिम्मत और ताकत दे। सब हो जाएगा। बैंक से शिक्षा ऋण के लिए कल अप्लाई
कर देंगे।
11 नवम्बर' 2013
आज दुर्गा पूजा है,
नवरात्रि का आठवाँ दिन। बेटा-बेटी दोनों एक ही ट्रेन से आ रहे हैं। दोनों
ने पैर छुआ और एक साथ बोले-'मम्मी, आप कितना गल गई हैं। खाना छोड़ दिया है
क्या? अपनी सेहत पर बिल्कुल ध्यान नहीं देतीं।' शरद ने तो मुझे कटघरे में
ही खड़ा कर दिया था। मम्मी, मैंने 9 तारीख को आपको फोन किया तो आपकी आवाज
से लगा कि आपकी साँस फूल रही है। मेरे पूछने पर आपने सफेद झूठ बोल
दिया-नहीं रे, अभी अभी दूर से पैदल आई हूँ चलकर। सीढ़ी चढ़कर आई थी। आप भूल
जाती हैं कि आप अपने बेटे को डॉक्टरी पढ़ा रही हैं। आपने हँसकर बात
टाली-'अब इस उमर में तू मुझे जिम भेजेगा?' बच्चों से कुछ छिपाना मुश्किल हो
गया है।
9 दिसम्बर 2015
आखिर मैं भी तो औरत हूँ। एक आम औरत की कमजोरियाँ
मुझे भी घेरती हैं। देखती हूँ कि मेरी देवरानियाँ, सहेलियाँ ठाठ से घर में
रोटी तोड़ती हैं। उनके पति कहते हैं कि जब तक मैं जिंदा हूँ, तुम घर से
बाहर क्यों निकलोगी। एक मैं हूँ कि मैं...काम न करूं तो पढ़ाई ठप्प,
गृहस्थी ठप्प। इनकी तनख्वाह का मोटा हिस्सा तो कर्ज चुकाने में ही चला जाता
है।
सफलता का आनंद उठाने के लिए ये ज़रूरी है।
जहाँ
तक घर में बैठी सहेलियों का ख्याल है- मैं उनके और उनके पतियों के विचार
से सख्त परहेज करती हूँ। स्त्री एक शक्ति पुंज है। सहिष्णुता की पराकाष्ठा
है, रचनाशील है, परावलम्बी नहीं। और फिर स्त्री की आजादी का मतलब घर में
बैठकर बातें बनाना, घर से बाहर पति और गृहस्थी से बेपरवाह हो मनमानी करना
या नियंत्रणहीन जीवन जीना नहीं बल्कि पति के साथ मिलकर सृजन का काम आजादी
से करना है। वैसे तो घर में बैठी औरतों से ईर्ष्याभाव होता है परंतु मेरे
मौलिक विचार इन कमजोरियों से भिड़ते हैं।
10 दिसम्बर' 2017
आज
तबियत ठीक नहीं है। थोड़ा चलते, उठते- बैठते साँस फूलने लगती है। लगता है
उर्जा चुक रही है, पर नहीं, अगर मौत को भी अभी आना है तो उसे बाहर इंतजार
करना होगा। इन्होंने कई बार पूछा भी मगर इन्हें क्या टेंशन देना।
शरद
ने इस डायरी में अपनी माँ का कुरुक्षेत्र देखा। यह डायरी नहीं आइना है।
आइना कैमरा नहीं होता कि अपनी सुविधानुसार लाइट, फोकस, मेकअप के सहारे
चीजों को अतिरेक रूप में पैदा करें। आइना तो सपाट सच बोलता है। शरद
बुदबुदाया, 'मै नही जानता, मैं अपनी माँ के हथेलियों के खुरदरेपन को कोमलता
में बदल पाऊंगा या हीं। उनके किये हुए का प्रतिदान भी तो संभव नहीं है मगर
पूरी कोशिश करूंगा कि अब ये हाथ और न छीजें। बहुत भावुक हो उठा शरद और
उसने अपनी माँ को पत्र लिखा प्यारी मम्मी आज आपकी बहुत याद आ रही है। आपकी
हथेलियों की खरखराहट मुझे अंदर से छील रही है। बिना किसी भाषण या उपदेश के
जिंदगी जीकर आपने मुझे सिखा दिया कि रोशनी बिखेरना इतना आसान नहीं है।
रोशनी बिखेरने के लिए मोमबत्ती को अपना वजूद पिघलाना ही पड़ता है। अपना
अस्तित्व ही दाँव पर लगाना पड़ता है। ऊर्जा का रूपांतरण करना पड़ता है। अब
आपके आराम के दिन आने वाले हैं।
आपका बेटा- शरद
-बैद्यनाथ झा
SARAL VICHAR
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