यह सन् १९४५ की घटना है।
गुरुदेव साधु वासवानी को भारतीय संस्कृति और गीता पर प्रवचन देने के लिए
जमशेदपुर में आमंत्रित किया गया था । वहां साधु वासवानीजी के प्रवचन सुनने
के लिए हर आयु के लोग रोज आने लगे। तब गुरुदेवजी को अचरज होने लगा कि इस
यांत्रिक युग में लोगों के मन में अध्यात्म की कितनी भूख छिपी हुई है। वहां
के लोगों के अंदर पवित्र जीवन जीने की ललक थी। उनके मन में ईश्वर से संवाद
करने की कामना थी। लोग दिल खोलकर साधु वासवानीजी से बात करते थे।
मुझे
एक खास युवक की स्मृति है। वह एक पारसी युवक था। टाटा की कंपनी में ऊंचे
पद पर था। उसकी वाणी में मिठास थी। वह रोज प्रथम पंक्ति में बैठकर प्रवचन
सुनता।
एक दिन वह सुबह-सुबह ही गुरुदेवजी के पास आया और बोला मुझ पर
इतनी कृपा करें कि मुझे ईश्वर के दर्शन हो जाएं। आप मुझे बताईए कि मुझे
इसके लिए क्या करना होगा? साधु वासवानीजी ने हंसते हुए कहा कि - तुम तो
पहले से ही जानते हो कि हमें अपना जीवन पवित्र रखना चाहिए। किसी से भी नफरत
नहीं करनी चाहिए। किसी पर अन्याय, अत्याचार नहीं करना चाहिए। सत्य की पूजा
करो। लोभ से बचो। ईश्वर जो भी दे उसे प्रसन्नता से स्वीकार करो। अपना समय
हमेशा ईश्वर स्मरण में बिताओ।
युवक- में यह सब बहुत पहले से करता
हूं फिर भी मेरे और ईश्वर के बीच काफी दूरी है। मुझे जब तक ईश्वर के दर्शन
नहीं होंगे, मैं बेचैन ही रहूंगा। जिस तरह से श्री रामकृष्ण परमहंस की कृपा
से विवेकानंद को ईश्वर के दर्शन हो गए थे उसी तरह आपकी कृपा से मुझे भी
ईश्वर का साक्षात्कार हो जाएगा। मेरे लिए तो आप ही रामकृष्ण परमहंस हैं।
यह सिलसिला लगातार चार दिनों तक चला। वह रोज यही अनुरोध करने लगा।
पांचवे दिन साधु वासवानीजी ने उससे कहा- मैं जो कहूंगा, वह करोगे?
वह बोला- मैं आपकी हर आज्ञा का पालन करुंगा।
साधु
वासवानीजी- तुम अभी नाई के पास जाकर अपना सिर मुंडवा लो। फिर अपने
कार्य-स्थल पर चलें जाना। शाम को मेरे पास वापस आना। फिर देखेंगे में
तुम्हारे लिए क्या कर सकता हूं।
उस युवक पर मानो बिजली गिर पड़ी। वह
सोचने लगा कि सिर मुंडवा कर ऑफिस कैसे जाऊंगा? मैं बदसूरत लगूंगा। फिर भी
ईश्वर के दर्शन न मिले तो ? मैं अपनी ही नजरों में गिर जाऊंगा।
शाम
को वह युवक लौटकर नहीं आया। कुछ दिनों बाद साधु वासवानीजी ने उस युवक के
बारे में कहा कि- उस युवक में अद्भुत गुण थे। लेकिन 'मैं" को नहीं भूल
पाया। यही अहंकार हमारे और ईश्वर के
बीच बाधक है। जब हम अनुभव करने लगते
हैं कि हम एक तुच्छ प्राणी हैं। तभी उस विराट के दर्शन संभव हैं। जब हम
विनयी बन जाएंगे तभी उनको देख सकेंगे। जैसे पांच हजार वर्ष पूर्व गोपियां
कृष्ण की बंसी बजती तो अपनी देह से बेखबर होकर दौड़ी चली जातीं। वे नृत्य
में ऐसे मगन हो जातीं कि एक दिव्य लोक में पहुंच जातीं।
यह 'मैं' का
विसर्जन एक सीमा है। इसके पार जाने से ही ईश्वरीअ प्रकाश के लोक में
प्रवेश मिलता है। यह 'मैं' का अहंकार ही हमें बेचैनी देता है। 'अहं का नाश
होने पर जब हमें उस दिव्य शक्ति के साम्राज्य में प्रवेश मिलता है। जहां
पवित्रता का वास होता है वहीं आत्मा से हमारा परिचय हो जाता है।
-दादा जे.पी. वासवानी
SARAL VICHAR
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