सोशल नेटवर्किंग साईट के जरिए पुराने मित्रों
को ढूंढना बड़ा आसान हो गया है। अपने प्रयासों से मुझे भी अपना खोया दोस्त
आज वापस मिल गया था...
घर के सारे काम निपटाकर मैं कम्प्यूटर के
सामने बैठी इंटरनेट खंगाल रही थी। बच्चों ने मुझे नेट चलाना, साईट पर लॉग
इन करके चैट करना, विडियो देखना सब सिखा दिया था, सो आजकल मेरा समय आराम से
कट जाता है। सोशल नेटवर्किंग के जरिए मैंने अपनी दो पुरानी सहेलियों का
भी पता लगा लिया था। इस अद्भुत चीज ने मुझे अपनी खोई हुई दो सखियों से मिला
दिया। लेकिन मेरा सबसे पुराना और प्रिय दोस्त मुझे आज तक नहीं मिला।
गाहे-बगाहे में उसका नाम टाईप करके उसे तलाश करती, पर हर बार अनजाने चेहरे
सामने आते और मायूसी ही हाथ लगती।
आज नाम टाईप करते ही एक पहचाना-सा
चेहरा स्क्रीन पर उभरा। मेरे दिल की धड़कनें तेज हो गई थीं। मैंने खुद को
संभाला और गौर से स्क्रीन की तरफ देखा, 'हां! यह तो वही है।' बीस साल के
लम्बे अरसे ने उसके चेहरे पर अपने निशान बनाए थे। पर आंखें अब भी वैसी ही
गहरी थीं, मानो अपनी तह में कई राज छुपाए हो। वक्त उस गहराई को भरने में
नाकाम रहा।
कम्प्यूटर स्क्रीन पर मेरा बचपन जैसे सांसे लेने लगा। मैं
अपने पुराने मोहल्ले में दोबारा पहुंच गई। जहां हम दोनों के घर आमने-सामने
थे। गर्मी की वे दोपहरियां जब हम दुनिया से बेखबर गिल्ली-डंडा खेलने में
मशगूल होते या वो रातें जब हम लुका-छिपी का खेल खेलते, ये सब आज मुझे अपनी
ओर खींच रहे थे।
खेलते-कूदते हमारी उम्र कब बचपन की दहलीज पार कर
गई, पता ही नही चला। बचपन के खेल खिलौने, साथी सब पीछे छूट चुके थे हम
दोनों भी एक-दूसरे से अलग हो गए। तब तक बातें होना भी बंद हो चुकी थीं। उस
जमाने में लड़के और लड़की के बीच दोस्ती नहीं हुआ करती थी, बातें करना तो
बहुत दूर की बात थी। हम दोनों के बीच एक रिश्ता कायम था, खामोशी का रिश्ता।
वक्त
गुजरता गया। पढ़ाई पूरी होते ही मेरी शादी तय हो गई। मैंने अपनी जिंदगी की
कश्ती को वक्त के सागर में हवाओं के रुख पर छोड़ दिया था। अपने माता-पिता
की मर्जी के खिलाफ खड़े होने का तो सवाल ही नहीं उठता, क्योंकि सारे फैसले
तो बड़े ही करते हैं और तब अपने बड़ों का विरोध करने के बारे में सोचा भी
नहीं जाता था।
मेरी शादी का वक्त भी नजदीक आ गया था। शादी के दो दिन
पहले उसकी मां हमारे घर आई और उन्होंने मेरे हाथ में एक पैकेट पकड़ाते हुए
कहा- 'लो यह तोहफा, तुम्हारे बचपन के दोस्त की तरफ से है। दरअसल वह किसी
काम से बाहर जा रहा है, इसलिए आज ही देने को कहा है। मैंने सिर झुकाकर
चुपचाप पैकेट ले लिया। उनके पैर छूकर आशीर्वाद भी लिया। पैकेट खोलकर देखने
के लिए जैसे मैं तड़प रही थी। आस-पास के लोगों को अपने-अपने काम में लगे
देख मैं तुरंत अपने कमरे की ओर दौड़ी। अंदर जाते ही पैकेट खोलकर देखने बैठ
गई। पैकेट में बंद एक नफीस-सा लैम्प था- अपनी सबसे प्रिय दोस्त के लिए...
इस दुआ के साथ कि उसकी जिंदगी हमेशा रोशन रहे।'
मैं वर्तमान में लौट
आयी। सोचने लगी, उस दिन के बाद से न उसका कोई संदेश आया, न मैंने उसे कभी
देखा। पर आज बिछड़ा साथी तस्वीर की शक्ल में मेरे बिल्कुल सामने था। आज
कम्प्यूटर का माऊस मेरी मुट्ठी में था और उसका चेहरा मेरे सामने। मैं उसे
फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजने ही वाली थी कि अपनी बेटी की बातें मेरे कानों में
गूंजने लगीं, 'मां! यह वर्चुअल वर्ल्ड है। इसमें सावधानी से प्रवेश करना।
आप की पीढ़ी इस दुनिया से भावनात्मक रिश्ते जोड़ लेती है, जो कभी-कभी घातक
सिद्ध हो जाता है। जरा ध्यान से...'
...और मैंने रिक्वेस्ट भेजे
बगैर लॉग ऑउट कर दिया। इस आशा के साथ कि इस दुनिया के किसी कोने में मेरे
बचपन की प्रीत का अहसास आज भी धड़क रहा है।
-अतिया मसूद
SARAL VICHAR
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