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निर्मल कर्म | (साधु वासवानीजी) NIRMAL KARMA ( 2 AUGUST BIRTHDAY )| SARAL VICHAR

 निर्मल कर्म

निर्मल कर्म | (साधु वासवानीजी) NIRMAL KARMA ( 2 AUGUST BIRTHDAY ) - www.saralvichar.in

मेरे प्यारे भाईयों और बहनों! गुरुदेव साधु वासवानीजी हमेशा अपने पास दो शास्त्र रखते थे। एक श्रीमद् भगवद् गीता, दूसरा श्री सुखमनी साहेब। उनका कहना था यदि तुम इन दो शास्त्रों का अध्ययन करो तो तुम्हें अन्य किसी पुस्तक या शास्त्र पढ़ने की जरुरत नहीं पड़ेगी। यह जरुरी नहीं कि पूरी सुखमनी का पाठ किया जाए। केवल एक सूत्र या एक पंक्ति लें, उसे समझने की चेष्टा करें।

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गुरुदेव साधू वास्वानीजी शिक्षा देते थे कि आध्यात्मिक जीवन का पहला कदम है 'वैराग्य'। इसका मतलब यह नहीं कि तुम घर परिवार को छोड़कर जंगल या आश्रम में चले जाओ। हमें जहां ईश्वर ने जन्म दिया है हमारे कर्मों के अनुसार कर्म प्राणी जो भी रिश्तेदार हैं उनके साथ ही रहना है पर बहुत अटकना नहीं है। आए हैं जीवन में तो दुनियादारी निभानी पड़ेगी पर बहुत ज्यादा मोह या मोह वालों के लिए चोरी-ठगी नहीं करनी है। हम उनसे इतना मोह करने लग जाते हैं कि उनके लिए किसी से झूठ बोलते हैं या बेईमानी करते हैं। हम ऐसे कितने ही कर्म बनाते हैं और हमें पता ही नहीं चलता। एक बार गुरुदेव ने कहा कि- आपने मक्खी को देखा है? कैसे शहद को चूसने जाती है और उसमें ही फंस जाती है। वास्तव में शहद चूसने से पहले मक्खी यह सोचती है कि मैं बड़ी सावधानी से शहद चूसूंगी पर उसके स्वाद में सब कुछ भूल जाती है और फंस जाती है। इंसान भी ऐसा ही सोचता है।

हमें अपने फर्ज तो निभाने हैं पर फंसना नहीं है। कर्म तो करें पर फल की इच्छा न करें। हम अगर बुरे कर्म करेंगे तो उनका फल तो अवश्य ही भोगना ही है। कहा भी गया है कि 'कर्म करने के लिए तू स्वतंत्र है पर फल भोगने के लिए तू परतंत्र (लाचार) है।' हमें इच्छा ही बांधती है।

एक छोटी कहानी है- एक बुजुर्ग व्यक्ति मुझसे मिलने आया। वो बहुत उदास था। उसने बताया कि उसने अपने इकलौते बेटे को विदेश भेजा, पढ़ाया लिखाया। उसे ऊंची शिक्षा देने के लिए मैंने लोगों से रिश्वत ली, झूठ बोले।
आज वह अच्छी कंपनी में है पर शादी के बाद मुझे घर से निकाल दिया। मैं इधर-उधर भटक रहा हूँ। मैंने जो बुरे कर्म किए ये उसी का फल है।

गुरुदेव कहते हैं कि उस वक्त हमें पता नहीं चलता कि हम कौनसे कर्म कर रहे हैं। हमें सावधानी रखनी है। सुजाग रहना है कि मेरे कारण किसी को भी कष्ट न हो। सभी में ईश्वर है। हमें दूसरों से वैसा ही व्यवहार करना चाहिए जैसा हम चाहते हैं कि कोई दूसरा हमसे व्यवहार करे ।

एक बार महात्मा गांधीजी के पास एक व्यक्ति आया कि - 'मैं आपसे श्री भगवद् गीता की शिक्षा लेने आया हूँ। आपने गीता का बहुत अभ्यास किया है, लोगों को शिक्षाएं भी दी हैं। 'गांधीजी ने उसे कहा कि तुम उचित समय पर आए हो। यहां पर बहुत सारी इंटें पड़ी हैं, इन्हें ध्यान से गिनो। दो-तीन दिन गिनने के बाद सोचता है लगता है गांधीजी शायद भूल गए हैं मैं उनसे गीता की शिक्षा लेने आया था। वो गांधीजी को संदेश भेजता है।

गांधीजी उसे अपने पास बुलाते हैं और कहते हैं मैं तुम्हें practical कर्म द्वारा गीता का ज्ञान देना चाहता था। 'तुम कर्म करो' अर्थात इंटे गिनते रहो फल की इच्छा त्याग दो। ऐसा मत कहो कि ये मेरा काम नहीं। तुम्हें जो कार्य दिया गया है वह तन्मय होकर करो।'

आज के युग में भी इस शिक्षा की बहुत जरुरत है। कई लोग समाज-सेवा करेंगे ये सोचकर कि हमारा मान-सम्मान होगा। हमारी बड़ाई होगी। पर हमें लगातार वो काम करना है बिना रुके, बिना थके। चाहे प्रशंसा मिले या न मिले। कर्म तो कोई भी व्यर्थ नहीं जाता। तुम अच्छे कार्य करोगे तो क्या ईश्वर तुम्हारा बुरा करेगा ? श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि 'तुम तीर छोड़ते रहो। तीर लगे या न लगे यह सोचना तुम्हारा काम नहीं, तुम सिर्फ ध्यान से तीर छोड़ो। चाहे उसका कुछ भी नतीजा निकले तुम्हारा उससे कोई संबंध नहीं। तुम अपने कर्म को प्रभू के चरण कमलों में अर्पित कर दो।

ॐ शांति! शांति! शांति !

 

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