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अमरीकी मनोवैज्ञानिक का अनुभव | AMERICAN MANOVAIGYANIK KA ANUBHAV | American Psychologist's Experience In Hindi By Saral Vichar


अमरीकी मनोवैज्ञानिक का अनुभव | AMERICAN MANOVAIGYANIK  KA ANUBHAV | American Psychologist's Experience In Hindi By Saral Vichar


एक अमरीकी मनोवैज्ञानिक (Psychologist) पूरब आना चाहता था विपस्सना ध्यान (Meditation) सीखने। तो बर्मा में सबसे बड़ा विपस्सना का स्कूल है--बौद्धों के ध्यान का।

उसने तीन सप्ताह की छुट्टी निकाली। बड़ी तैयारियां करके रंगून पहुंचा। बड़ी कल्पनाएं ले कर पहुंचा था कि किसी पहाड़ की तलहटी में, कि घने वृक्षों की छाया में, कि झरने बहते होंगे, कि पक्षी कलरव करते होंगे, कि फूल खिले होंगे। स्वत: में तीन सप्ताह आनंद से गुजारूंगा। तीन सप्ताह के लिए बड़ा प्रसन्न था।

लेकिन जब उसकी टैक्सी जा कर आश्रम के सामने रुकी तो उसने सिर पीट लिया। वह रंगून के बीच बाजार में था, मछली बाजार में। दुर्गंध ही दुर्गंध और उपद्रव ही उपद्रव, सब तरफ शोरगुल और मक्खियां भिनभिना रही हैं और कुत्ते भौंक रहे और आदमी सौदा कर रहे हैं और स्त्रियां भागी जा रही हैं, और बच्चे चीख रहे हैं।

सोचा...यह आश्रम की जगह है?
उसके मन में तो हुआ कि इसी वक्त सीधा वापिस लौट जाऊं। लेकिन तीन दिन तक कोई लौटने के लिए हवाई जहाज भी न था। तो उसने सोचा अब आ ही गया हूं तो कम से कम इन सदगुरु के दर्शन तो कर ही लूं! यह किन सदगुरु ने यह आश्रम खोल रखा है यहां? यह कोई जगह है आश्रम खोलने की?

भीतर गया तो बड़ा हैरान हुआ। सांझ का वक्त था और कोई दो सौ कौए आश्रम पर लौट रहे थे, क्योंकि सांझ को बौद्ध भिक्षु भोजन करके उनको कुछ फेंक देते होंगे चावल इत्यादि। तो वे सब वहां थे...बड़ा शोरगुल था।

कौए जैसे कोई महाराजनीतिज्ञ, बड़े विवाद में लगे हुए। शास्त्रार्थ चल रहा है जैसे। और कौए तो शिकायत ही करते रहते हैं। उनको कभी किसी चीज से शांति तो मिलती नहीं। भ्रष्ट योगी हैं। शिकायत उनका धंधा है। वे एक-दूसरे से शिकायत में लगे हुए, चीख-चीत्कार मच रहा है।

वहीं भिक्षु ध्यान करते हैं। कोई टहल रहा, जैसा बौद्ध टहल कर ध्यान करते हैं। कोई वृक्ष के नीचे शांत बैठा ध्यान कर रहा है। कोई खड़ा हो कर एक क्षण देखता रहा, बात कुछ समझ में नहीं आयी, बड़ी विरोधाभासी लगी। अजीब लगी।

लेकिन भिक्षुओं के चेहरों पर बड़ी शांति भी है। जैसे यह सब कुछ हो ही नहीं रहा है, या जैसे ये कहीं और हैं, किसी और लोक में हैं जहां ये सब खबरें नहीं पहुचतीं या पहुंचती हैं तो कोई विक्षेप नहीं है। इन भिक्षुओं के चेहरों को देख कर उसने सोचा तीन दिन तो रुक ही जाऊं।

वह गुरु के पास गया तो गुरु से उसने यही कहा कि यह क्या मामला है? यह कहां जगह चुनी आपने?
तो गुरु ने कहा : रुको, तीन सप्ताह बाद अगर तुम फिर यही प्रश्न पूछोगे तो उत्तर दूंगा।

वह तीन सप्ताह रुक गया। पहले तो तीन दिन के लिए रुका, लेकिन तीन दिन में लगा कि बात में कुछ है। एक सप्ताह रुका। एक सप्ताह रुका तो पता चला कि धीरे-धीरे यह बात कुछ अर्थ नहीं रखती कि बाजार में शोरगुल हो रहा है, ट्रक जा रहे हैं, कारें दौड़ रहीं, कौए कांव-कांव कर रहे, कुत्ते भौंक रहे, मक्खियां भिनभिना रहीं, ये सब बातें कुछ अर्थ नहीं रखतीं। तुम कहीं दूर लोक में जाने लगे। तुम कहीं भीतर उतरने लगे, कोई चीज अटकांव नहीं बनती।

दूसरे सप्ताह होते-होते तो उसे याद ही नहीं रहा। तीसरे सप्ताह तो उसे ऐसे लगा कि अगर ये कौए यहां न होते, ये कुत्ते यहां न होते, यह बाजार न होता, तो शायद ध्यान हो ही नहीं सकता था। क्योंकि इसके कारण एक पृष्ठभूमि बन गयी। तब उसने गुरु को कहा कि मुझे क्षमा करें। मैंने जो शिकायत की थी वह ठीक न थी। वह मेरी जल्दबाजी थी।

गुरु ने कहा--बहुत सोच कर ही यह आश्रम यहां बनाया है। जान कर ही यहां बनाया है। क्योंकि विपस्सना का प्रयोग ही यहीं है कि जहां बाधा पड़ रही हो वहां ही बाधा के प्रति प्रतिक्रिया न करनी है। प्रतिक्रिया--शून्य हो जाये। चित शांत हो जाता है।

ओशो, अष्टावक्र महागीता

सरल विचार

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