1. तुलसी इस संसार में, भांति भांति के लोग।
सबसे हंस मिल बोलिए, नदी नाव संजोग॥
अर्थ : तुलसीदास जी कहते हैं, इस संसार में तरह-तरह के लोग रहते हैं। आप सबसे हंस कर मिलो और बोलो जैसे नाव नदी से संयोग कर के पार लगती है वैसे आप भी इस भव सागर को पार कर लो।
जब किसी बात पर हमें दुख होता , अचरज होता या गुस्सा आता हो तो इसी दोहे को याद कजिएगा । दुनिया बड़ी जटिल (complex) है। जितने लोग उतनी तरह की फितरत , उतनी ही जटिलताएँ। बेहतर होगा कि इस समुन्दर मे उतरने की बजाय हम अपने अंदर की छान-बीन कर लें और जिन्दगी की भव सागर को खुशी-खुशी पार कर लें ।
2. आवत ही हरषै नहीं, नैनन नहीं स्नेह।
तुलसी तहां न जाइये, कंचन बरसे मेह॥
अर्थ
: तुलसीदास जी कहते हैं, जिस स्थान या जिस घर में आपके जाने से लोग खुश
नहीं होते हों और उन लोगों की आंखों में आपके लिए न तो प्रेम और न ही स्नेह
हो। वहां हमें कभी नहीं जाना चाहिए, चाहे वहां धन की ही वर्षा क्यों न
होती हो। जब महाभारत में भगवान कृष्ण ने दुर्योधन के महल के पकवानों को छोड़कर विदुर के घर खाना खाया था।
दूसरा- जब गुरु नानक देव जी ने एक अमीर व्यापारी के पकवान ठुकरा कर एक गरीब 'भाई लालो जी' के घर भोजन ग्रहण किया था।
अतः जिस स्थान पर आप का सत्कार ना हो, आप को यथोचित सम्मान ना मिले, आपको प्रेम ना मिले… अथवा हम कह सकते हैं कि जिस स्थान पर व्यक्तियों के हृदय के भाव शुद्ध एवं प्रेमल ना हों उस स्थान पर कदापि नहीं जाना चाहिए।
3. तुलसी साथी विपत्ति के, विद्या विनय विवेक।
साहस सुकृति सुसत्यव्रत, राम भरोसे एक॥
ज्ञान: जब हम अकेले होते हैं, तो हमारा ज्ञान ही हमारा साथी होता है।
व्यवहार: दूसरों के साथ हमारा व्यवहार हमारे चरित्र को दर्शाता है।
बुद्धि: मुश्किल समय में बुद्धि ही हमें सही फैसले लेने में मदद करती है।
साथ ही, उन्होंने सत्य और साहस के महत्व पर भी जोर दिया है। सत्य हमेशा सही राह दिखाता है, भले ही शुरुआत में मुश्किल क्यों न हो। साहस से किए गए कार्य हमेशा सफल होते हैं।
4. काम क्रोध मद लोभ की, जौ लौं मन में खान।
तौ लौं पण्डित मूरखौं, तुलसी एक समान॥
अर्थ
: तुलसीदास जी कहते हैं, जब तक व्यक्ति के मन में काम की भावना, गुस्सा,
अहंकार, और लालच भरे हुए होते हैं। तब तक एक ज्ञानी व्यक्ति और मूर्ख
व्यक्ति में कोई अंतर नहीं होता है, दोनों एक ही जैसे होते हैं।
5. दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान।
तुलसी दया न छोड़िए, जब लग घट में प्राण॥
अर्थ
: तुलसीदास जी कहते हैं, धर्म का मूल भाव ही दया है और अहम का भाव ही पाप
का मूल (जड़) होता है। इसलिए जब तक शरीर में प्राण है कभी दया को नहीं
त्यागना चाहिए।
6. तुलसी मीठे बचन ते, सुख उपजत चहुं ओर।
बसीकरन इक मंत्र है, परिहरू बचन कठोर॥
अर्थ
: तुलसीदासजी कहते हैं, मीठे वचन सब ओर सुख फैलाते हैं। किसी को भी वश में
करने का ये एक मन्त्र है। इसलिए मानव को चाहिए कि कठोर वचन छोड़कर मीठा
बोलने का प्रयास करे।
7. तुलसी भरोसे राम के, निर्भय हो के सोए।
अनहोनी होनी नही, होनी हो सो होए॥
अर्थ
: तुलसीदास जी कहते हैं, भगवान् राम पर विश्वास करके चैन की बांसुरी बजाओ। इस संसार में कुछ भी अनहोनी नहीं होगी और जो होना होगा उसे कोई रोक नहीं सकता। इसलिये आप सभी आशंकाओं के तनाव से मुक्त होकर अपना काम करते रहो।
8. तुलसी पावस के समय, धरी कोकिलन मौन।
अब तो दादुर बोलिहं, हमें पूछिहै कौन॥
अर्थ
: तुलसीदास जी कहते हैं, वर्षा ऋतु में मेंढकों के टर्राने की आवाज इतनी
ज्यादा हो जाती है कि, कोयल की मीठी वाणी उनके शोर में दब जाती है। इसलिए
कोयल मौन धारण कर लेती है। अर्थात जब धूर्त और मूर्खों का बोलबाला हो जाए
तब समझदार व्यक्ति की बात पर कोई ध्यान नहीं देता है, ऐसे समय में उसके चुप
रहने में ही भलाई है।
9. सहज सुहृद गुरस्वामि सिख जो न करइ सिर मानि।
सो पछिताइ अघाइ उर अवसि होइ हित हानि॥
अर्थ
: हमारे हित चाहने वाले गुरु और स्वामी की सीख को जो नहीं मानता वह बहुत पछताता है । उसकी हानि अवश्य होती है।
10. मुखिया मुखु सो चाहिऐ, खान पान कहुँ एक।
पालइ पोषइ सकल अंग, तुलसी सहित बिबेक॥
अर्थ
: मुँह खाने पीने का काम अकेला करता है, लेकिन वह जो खाता पीता है, उससे शरीर के सारे अंगों का पालन पोषण करता है। इसलिए मुखिया को भी ऐसे ही विवेकवान होकर वह अपना काम अपने तरह से करे लेकिन उसका फल सभी में बाँटे।
11. तुलसी नर का क्या बड़ा, समय बड़ा बलवान।
भीलां लूटी गोपियाँ, वही अर्जुन वही बाण॥
अर्थ
: तुलसीदास जी कहते हैं, समय ही व्यक्ति को सर्वश्रेष्ठ और कमजोर बनता है। अर्जुन का वक्त बदला तो उसी के सामने भीलों ने गोपियों को लूट लिया जिसके
गांडीव की टंकार से बड़े बड़े योद्धा घबरा जाते थे।
जब भगवान कृष्ण दुनिया से विदा होनेवाले थे तो उन्होंने अर्जुन को मिलने के लिए बुलाया । जाने से पूर्व युधिष्ठिर ने अर्जुन से कहा कि चाहे कुछ भी हो जाय , कृष्ण के गले नहीं लगना ।
अर्जुन जब द्वारिका पहुँचे तो कृष्ण ने उन्हें गले लगने को कहा । पहले तो अर्जुन झिझके किन्तु कृष्ण के निवेदन पर उनसे रहा नहीं गया और अर्जुन कृष्ण से गले मिल गए । इसी दौरान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से सारी दिव्य विद्याएँ ले ली ताकि उनके जाने के पश्चात उन दिव्य शक्तियों का दुरुपयोग न हो । दिव्यता से हीन अर्जुन एक साधारण मानव हो गए जो डाकुओं की भीड़ से अकेले निपटने में अक्षम साबित हुए ।
SARAL VICHAR
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