गर्मी, आँधी और बरसात इन तीनों ने मिलकर मालती को पस्त कर दिया था। कितनी बार नहाए, कितना पसीना सुखाए, बाथरूम में जाओ, तो पानी गायब, पंखा चलाओ, तो बिजली गायब। जब से वह अमेरिका से वापस आई है, भारत की आबोहवा तथा अन्य गतिविधियों से तारतम्य बैठाते-बैठाते वह थक गई है।
कितने लाख ख़र्च किए, तब कहीं जाकर मनपसंद का फ़्लैट मिला है। छह माह से मिस्त्री-बढ़ई सभी लगे हैं घर सजाने में। सारे दिन घर-घर्र, चीं-चीं की आवाज़ें और नया पेंट, जो दरवाज़ों-खिड़कियों पर हो रहा है, उसकी गंध से दम घुटता है दिनभर। मुँह पर रुमाल रखते हुए वह शाम को कुछ देर फ़्लैट से निकल कर सड़क पर आ गई। मन ही मन सोचा कि कल से मिस्त्री-बढ़ई सभी को कुछ दिनों के लिए आने से मना कर देगी। सड़क पर चलते हुए उसे अपने बेटे-बेटी, नाती-पोते सभी की याद व्याकुल कर रही थी। अगर यहाँ मायके के लोग भाई-भाभी, बहन-बहनोई, ननदें न होतीं, तो यह शहर उसे बियाबान जंगल जैसा लगता।
पति की ज़िद के चलते उसे भारत आना पड़ा था। उनका मन अगर वहीं रम जाता, तो यहाँ के नरक में वह कभी भी न आती। मन में उठ रहे तूफ़ान से वह रुआँसी हो गई। जब अँधेरा घिरने लगा, स्ट्रीट लाइटें जल उठीं, तो अनायास उसे घर की याद आई। 'चलें' उसने मन-ही-मन सोचा, खाना भी तो बनाना होगा।
घर का दरवाज़ा खुलते ही, "कहाँ चली गई थीं" सवाल सुनते ही उसका रोम-रोम जल उठा।
"क्यों?" उसने लापरवाही भरे स्वर में पति श्याम सुंदर की ओर एक प्रश्न उछाल दिया।
"क्यों क्या भई! मुझे चिंता हो रही थी।"
'चिंता' वह मन-ही-मन बुदबुदाई। फिर कुछ संयत होकर हैरानी से पति की ओर देखती रही।
"पसीने से तरबतर हो रहे हो, तुम भी नहा-धोकर थोड़ी देर सड़क तक घूम क्यों नहीं आते?" स्वर में आर्द्रता भी थी और धीमापन भी।
"तुम साथ चलतीं, तो ठीक रहता। अकेले नहीं जाऊँगा मैं।" स्वर में अक्खड़ बच्चे वाला हठीलापन था।
"तुम्हें क्या हो गया है? हारे हुए जुआरी जैसे बैठ जाते हो।"
"हारे हुए जुआरी नहीं, हारे हुए सिपाही कहना चाहिए। अरे जीवन के इस युद्ध क्षेत्र में वृद्धावस्था तक पहुँचकर स्थितियाँ हारे हुए सिपाही जैसी ही तो हो जाती है।" श्याम सुंदर खिलखिलाकर हँस दिए। पति की इस हँसी से मालती के मन मरुस्थल में हरियाली की लहर सी दौड़ गई।
"अकेले-अकेले मन नहीं लगता। शाम जब पक्षी बसेरा लेने के लिए उड़ते तब बच्चों की बहुत याद आती है। तुम्हें भी आती होगी न?"।
"हाँ! ऐसा ही होता है। जब तुम अमेरिका में थीं और मैं यहाँ तो मुझे तुम्हारे साथ-साथ सभी की याद आती थी। तुम्हीं बतलाओ वहाँ रहने पर तुम्हें भी तो मेरी याद आती होगी?"।
"लेकिन मैं अपनी और तुम्हारी नहीं, बच्चों की बात कर रही हूँ।" मालती के स्वर में झुंझलाहट थी।
"बच्चे जब स्वयं बच्चों वाले हो जाते हैं, तब वे बड़े हो जाते हैं। उनके कर्तव्य और अधिकार बदल जाते हैं। हम लोग अपने जीवन का कार्यक्षेत्र पूर्ण कर चुके हैं। फिर हम अकेले कहाँ हैं? हम-तुम दो हैं न, दो जब पास-पास खड़े हों, तो दो नहीं, ग्यारह होते हैं।"।
"यह फिलोसाफ़ी मुझे बहला नहीं पाती।" मन के भीतर की उदासीनता मालती के कंठ को अवरुद्ध कर रही थी।
"कुछ भी कहो। मुझे तो अपने देश में ही सुख-शांति मिलती है।"।
"तुम तो ऐसे कह रहे हो, जैसे बच्चों से तुम्हारा कोई रिश्ता ही न हो।"।
"रिश्ता! क्या मतलब? । क्या माता-पिता के रिश्ते भी बच्चों को समझाए जाते हैं? बेटा वहाँ डॉक्टर है, बच्चों वाला है, बहू भी वहाँ अच्छी पोस्ट पर है। अगर वे सभी स्वेच्छा से भारत आते हैं, तो उनका स्वागत है और यह भी तभी तक सम्भव होगा, जब तक उनके बच्चे छोटे हैं। बच्चों के बड़े हो जाने पर उनका भारत वापस आना मुश्किल हो जाएगा। बड़े हो जाने पर उनके बच्चे वहाँ की संस्कृति में अपने को ढाल चुके होंगे, तब हमारे बच्चों को मन मारकर वहीं रहना होगा। इस तरह वो पीढ़ियाँ एक-दूसरे से मिलने को व्याकुल होती रहेंगी।" पति का कथन सत्य था, किंतु मालती के गले नहीं उतर रहा था।
उस दिन दोनों की शादी की वर्षगाँठ थी। भाई-भाभी, बहन-बहनोई, ननद के बच्चे सभी एकत्रित हुए। घर में ख़ूब शोरगुल था। भतीजे-भतीजियों, ननदों के बच्चे सभी गीत गा रहे थे, चुटकुले सुना रहे थे।
"आज जोड़ी जम रही है।" बड़े साले ने थोड़ा रोमांटिक लहज़े में कहा।
"कहाँ भाई, अब तो सींग कटा कर बछड़ों में शामिल होने जैसा लग रहा है।" श्याम सुंदर ने थके हुए स्वर में कहा।
"क्या बात है यार, अभी से हथियार डाल दिए।" साढ़ू भाई ने चुटकी ली।
"हथियार क्या डालना। बेगम को भारत रास नहीं आ रहा है।" श्याम सुंदर धीरे से फुसफुसाया।
"मालती।" बहनोई की तेज आवाज़ सुनकर मालती भागती हुई पास आई, "क्या हुआ?"।
"होना क्या है? ज़रा पास आकर बैठो तो कुछ कहें।"।
"कहिए।" वह बहनोई के पास आकर बैठ गई।
"इधर नहीं, उधर चौधरी के पास। शिकायत इन्हें है।"।
"शिकायत?" उसने आश्चर्य से श्याम सुंदर की ओर देखा।
"कुछ नहीं, बैठो पास में।" श्याम सुंदर मुस्कुराए।
"इस तरह से मुँह सिलकर नहीं बैठ सकती। इतने बच्चे आए हैं, तुम भी हँसो-बोलो।"।
"जो बहुत कुछ कहना चाहते हैं, वे अधिकतर चुप ही रहते हैं। फिर दूसरों की बात सुनने में जो आनंद है, वह अपनी कहने में कहाँ?"।
"जीजाजी आप इनसे बातें करिए। मैं बच्चों के पास जा रही हूँ।"।
"इनको बच्चों से बहुत लगाव है।" श्याम सुंदर ने एक लंबी साँस ली।
"फ़ोन पर बेटे-बहू से बात करके आ रही हूँ। उनका यहाँ इतनी जल्दी आने का कोई प्रोग्राम नहीं है।" छाता गैलरी में रखते हुए मालती ने लगभग रुआँसे स्वर में कहा।
"तुम तो बहुत भीग गई हो।" श्याम सुंदर के स्वर में आत्मीयता घुली जा रही थी।
"बेटा फ़ोन पर कह रहा था कि वह हमें बहुत मिस कर रहा है। मेरा तो मन यहाँ बिल्कुल नहीं लगता। दिल कर रहा था, फ़ोन पर बात करते-करते उड़कर उनके पास पहुँच जाऊँ।"।
"कपड़े बदल लो। चलो कॉफ़ी बनाते है।" श्याम सुंदर के स्वर की शीतलता ने मालती के मन को झकझोर दिया।
"तुम अपने तक ही सीमित क्यों हो गए हो?" उसकी आँख में आग और पानी दोनों सम्मिलित हो गए थे।
"क्यों, क्या बच्चों के अलावा और कोई विषय नहीं है तुम्हारे पास?" उनके स्वर में आक्रोश कम निरीहता अधिक थी।
रात का प्रथम पहर समाप्त हो चुका था। मालती और श्याम सुंदर दोनों को नींद कुछ कहने के लिए जगाए हुए थी। जले और बुझे अनेक तीर दोनों के तरकश में थे।
"सुनो, मुझे बच्चों के पास अमेरिका जाना है।"।
"क्या इसे तुम्हारा अंतिम फ़ैसला समझूँ?" श्याम सुंदर ने धीरे से हाथ बढ़ाकर मालती का हाथ थाम लिया।
"तुम पूरे दिन पसीने से तरबतर रहते हो। दो टाइम नहाना भी तुम्हें अच्छा नहीं लगता, क्या अइयाजी ने तुम्हें अफ़ीम खिलाकर पाला था?"।
मालती ने श्याम सुंदर का हाथ धीरे से परे कर दिया।
"आज अइयाजी की याद कैसे आ गई?" श्याम सुंदर हँसे।
"हाँ अइयाजी की एक-एक बात मुझे याद है। कुछ दिन बेटे के पास सुख से रह रहे थे, तो तुमने यहाँ आकर..."।
"मैंने यहाँ आकर क्या... । मैं विदेश में पुअर ओल्ड मैन की डिग्री लेकर नहीं रह सकता। आई हेट दैट कल्चर। खाओ-पिओ और मौज करो, बस यही है ज़िंदगी। भौतिक सुविधाएँ और युवावस्था की आपाधापी... और तो और दूसरे देश का युवा भी सेकंड सिटिज़न... नॉनसेंस।"।
"व्हाट नॉनसेंस!" मालती आवेश में आ गई।
"मैं कल ही वापसी की तैयारी में लगती हूँ। तुम यहाँ रहो, यहाँ का देश-राग अलापते रहो। जब वहाँ आने का मन हो, फ़ोन कर देना, व्यवस्था हो जाएगी।"।
"व्यवस्था, कैसी व्यवस्था?" श्याम सुंदर के स्वर में बेपनाह हैरानी थी।
"जिस सुख के लिए तुम वहाँ भाग रही हो, क्या वहाँ उस सुख की गारंटी है?"।
"यहाँ क्या है?" मालती ने सीधे सवाल किया।
"यहाँ हम कुछ लेने नहीं आए हैं। और ज़िंदगी बनिए की दुकान भी नहीं है, जहाँ लाभ की कामना ही की जाए। हम अपना जीवन जी चुके हैं, बच्चों पर भार क्यों बनें? तुम कुछ भी समझो, मुझे तो अपने देश की मिट्टी से मोह है।"।
"मोह! ।।" मालती ने मुँह बिचकाया।
अगले दिन से दोनों में अव्यक्त अनबोला शुरू हो गया। बाहरवालों के सामने व्यवहार बिल्कुल सामान्य। भोजन, चाय-नाश्ता सब एक साथ, मगर ज़ुबान बिल्कुल ख़ामोश। कुछ दिन बाद क्रम टूटा।
"मैं परसों वापस जा रही हूँ।"।
"कहाँ?" हैरानी से श्याम सुंदर का मुँह खुला का खुला रह गया।
"अमेरिका, बेटे के पास।" मालती ने नपा-तुला जवाब दिया।
"तुमने बिना बतलाए तैयारी भी कर ली।"।
"किसको बतलाती?"।
"बुढ़ापे में हम दोनों को एक-दूसरे का ही सहारा है। यह भी नहीं सोचा।"।
"सब सोचकर ही फ़ैसला किया है।"।
फिर अमेरिका जाने का दिन भी जल्दी ही आ गया।
"मेरी सवेरे पाँच बजे की फ़्लाइट है।" मालती ने कहा, तो श्याम सुंदर ने गौर से उसकी ओर देखा। उसकी आँखों ने जो कुछ मालती से कहा उसे उसने समझ कर भी नहीं समझा।
"मैं एयरपोर्ट तक पहुँचा दूँगा।"।
"सवेरे-सवेरे परेशान होने की ज़रूरत नहीं है। छोटे भाई से कह दिया है, वह अपनी गाड़ी से पहुँचा देगा।" संवाद पर यहीं विराम लग गया।
उस रात किसे नींद आई कुछ कहा नहीं जा सकता। सवेरे गाड़ी का हॉर्न सुनकर श्याम सुंदर की नींद खुली, तो मालती बैग अटैची उठाकर "चलती हूँ..." कहते हुए बाहर निकल गई।
दिन निकल रहा था। छोटे साले का फ़ोन आया, "दीदी को एयरपोर्ट पहुँचा दिया है। फ़्लाइट एक घंटे लेट है।"।
मालती प्रतीक्षालय में अटैची-बैग रखकर आराम से सोफ़े पर बैठ गई। अचानक उसे आभास हुआ जैसे वह बोधिवृक्ष के नीचे बैठी हो। सुन्न होते हुए शरीर की सारी उष्मा मस्तिष्क को मथ रही थी। किसी अदृश्य शक्ति ने उसे कुरेदा।
जिस मोह में वह भागकर जा रही है, क्या वह ठीक है? बेटा-बेटी दोनों वहाँ अपने अपने परिवार में रचे-बसे हैं। उसका अस्तित्व तो वहाँ होते हुए भी न के बराबर है, जब तक हाथ-पैर चल रहा है, सब ठीक रहेगा। कई वर्षों तक उसने वहाँ नौकरी की है। उसकी उसे अच्छी पेंशन मिलेगी, मगर उससे क्या? पैसों की तंगी तो यहाँ भी नहीं है। फिर पैसा ही तो सब कुछ नहीं होता।
श्याम सुंदर जाग चुके होंगे। वह सोफ़े से अच्छी तरह चिपक कर बैठ गई। नए घर में अभी तो सामान भी व्यवस्थित नहीं किया है। वह स्वयं चकित थी कि सात फेरों के बंधन को नकार कर वह यहाँ आ कैसे गई?
अभी तक माँ होने के नाते उसका जो ममत्व कुलाँचे मार रहा था, वह भी उसे चिढ़ाता हुआ लगा। बेटा पूछेगा, "पापा को अकेला छोड़ आई।" जिसके मोह में भागकर जा रही थी, उसी ने पलट कर वार कर दिया था। इस वार से वह तिलमिलाई नहीं, कुछ सोचने को बाध्य हो गई। भूत-भविष्य सब गड्डमड्ड हो गए। सिर्फ़ वर्तमान उसके सामने साकार खड़ा था।
वर्तमान अपना घर, अपनी गृहस्थी, अपना पति। सम्पूर्ण जीवन की अनुभूतियों का यदि वह बँटवारा करे, तो उसका बहुत बड़ा भाग भारत में उसके घर में ही बिखरा या सजा हुआ था। जिस तरह उसके बच्चों के अपने परिवारों के प्रति फ़र्ज़ और ज़िम्मेदारियाँ है, उसकी अपने घर के प्रति भी तो ज़िम्मेदारी और जवाबदेही है।
इसी उहापोह में कितना समय निकल गया, उसे पता ही नहीं चला। वह तंद्रा में थी आसपास से बेख़बर।
वह बार-बार अपने घर का जीना चढ़ रही थी। श्याम सुंदर कभी ऊपर वाले पाँवदान पर तो कभी नीचे वाले पर। क्या करे क्या न करे। अचकचाकर उसकी तंद्रा टूटी, हवाई जहाज़ जा चुका था।
"थैंक गॉड।" उसके मुँह से निकला। अपना सामान उठाए वह इत्मीनान से बाहर आ गई। खुली हवा में उसने चैन की साँस ली और पानी की बोतल घूँट-घूँट पीकर खाली कर दी।
"टैक्सी।" उसने हाथ दिया। टैक्सी में बैठते ही एक पल को उसकी आँखें बंद हुईं।
उसे उलझन हो रही थी। घर दूर क्यों हो गया है। गाड़ी धीरे-धीरे क्यों चल रही है।
कब वह घर पहुँच गई, कब उसने कॉलबेल बजाई उसे कुछ पता ही नहीं चला।
"अरे, क्या हुआ? गई नहीं तुम?" श्याम सुंदर आश्चर्यचकित थे।
"नहीं, मैं लौट आई हूँ।" वह धम्म से सोफ़े पर बैठ गई।
"हुआ क्या?"।
"होना क्या है? कोई अदृश्य शक्ति थी जिसने मुझे जाने नहीं दिया।" मालती थके, किंतु स्थिर स्वर में बोली।
"मुझे पता था।"।
"क्या?"।
"यही कि तुम नहीं जा सकतीं।"।
"फिर उसी समय क्यों नहीं रोका?"।
"और किसने रोका।"।
"श्याम सुंदर तुम! तुम..." मालती स्तब्ध हो गई।।
घर का दरवाज़ा खुलते ही, "कहाँ चली गई थीं" सवाल सुनते ही उसका रोम-रोम जल उठा।
"क्यों?" उसने लापरवाही भरे स्वर में पति श्याम सुंदर की ओर एक प्रश्न उछाल दिया।
"क्यों क्या भई! मुझे चिंता हो रही थी।"
'चिंता' वह मन-ही-मन बुदबुदाई। फिर कुछ संयत होकर हैरानी से पति की ओर देखती रही।
"पसीने से तरबतर हो रहे हो, तुम भी नहा-धोकर थोड़ी देर सड़क तक घूम क्यों नहीं आते?" स्वर में आर्द्रता भी थी और धीमापन भी।
"तुम साथ चलतीं, तो ठीक रहता। अकेले नहीं जाऊँगा मैं।" स्वर में अक्खड़ बच्चे वाला हठीलापन था।
"तुम्हें क्या हो गया है? हारे हुए जुआरी जैसे बैठ जाते हो।"
"हारे हुए जुआरी नहीं, हारे हुए सिपाही कहना चाहिए। अरे जीवन के इस युद्ध क्षेत्र में वृद्धावस्था तक पहुँचकर स्थितियाँ हारे हुए सिपाही जैसी ही तो हो जाती है।" श्याम सुंदर खिलखिलाकर हँस दिए। पति की इस हँसी से मालती के मन मरुस्थल में हरियाली की लहर सी दौड़ गई।
"अकेले-अकेले मन नहीं लगता। शाम जब पक्षी बसेरा लेने के लिए उड़ते तब बच्चों की बहुत याद आती है। तुम्हें भी आती होगी न?"।
"हाँ! ऐसा ही होता है। जब तुम अमेरिका में थीं और मैं यहाँ तो मुझे तुम्हारे साथ-साथ सभी की याद आती थी। तुम्हीं बतलाओ वहाँ रहने पर तुम्हें भी तो मेरी याद आती होगी?"।
"लेकिन मैं अपनी और तुम्हारी नहीं, बच्चों की बात कर रही हूँ।" मालती के स्वर में झुंझलाहट थी।
"बच्चे जब स्वयं बच्चों वाले हो जाते हैं, तब वे बड़े हो जाते हैं। उनके कर्तव्य और अधिकार बदल जाते हैं। हम लोग अपने जीवन का कार्यक्षेत्र पूर्ण कर चुके हैं। फिर हम अकेले कहाँ हैं? हम-तुम दो हैं न, दो जब पास-पास खड़े हों, तो दो नहीं, ग्यारह होते हैं।"।
"यह फिलोसाफ़ी मुझे बहला नहीं पाती।" मन के भीतर की उदासीनता मालती के कंठ को अवरुद्ध कर रही थी।
"कुछ भी कहो। मुझे तो अपने देश में ही सुख-शांति मिलती है।"।
"तुम तो ऐसे कह रहे हो, जैसे बच्चों से तुम्हारा कोई रिश्ता ही न हो।"।
"रिश्ता! क्या मतलब? । क्या माता-पिता के रिश्ते भी बच्चों को समझाए जाते हैं? बेटा वहाँ डॉक्टर है, बच्चों वाला है, बहू भी वहाँ अच्छी पोस्ट पर है। अगर वे सभी स्वेच्छा से भारत आते हैं, तो उनका स्वागत है और यह भी तभी तक सम्भव होगा, जब तक उनके बच्चे छोटे हैं। बच्चों के बड़े हो जाने पर उनका भारत वापस आना मुश्किल हो जाएगा। बड़े हो जाने पर उनके बच्चे वहाँ की संस्कृति में अपने को ढाल चुके होंगे, तब हमारे बच्चों को मन मारकर वहीं रहना होगा। इस तरह वो पीढ़ियाँ एक-दूसरे से मिलने को व्याकुल होती रहेंगी।" पति का कथन सत्य था, किंतु मालती के गले नहीं उतर रहा था।
उस दिन दोनों की शादी की वर्षगाँठ थी। भाई-भाभी, बहन-बहनोई, ननद के बच्चे सभी एकत्रित हुए। घर में ख़ूब शोरगुल था। भतीजे-भतीजियों, ननदों के बच्चे सभी गीत गा रहे थे, चुटकुले सुना रहे थे।
"आज जोड़ी जम रही है।" बड़े साले ने थोड़ा रोमांटिक लहज़े में कहा।
"कहाँ भाई, अब तो सींग कटा कर बछड़ों में शामिल होने जैसा लग रहा है।" श्याम सुंदर ने थके हुए स्वर में कहा।
"क्या बात है यार, अभी से हथियार डाल दिए।" साढ़ू भाई ने चुटकी ली।
"हथियार क्या डालना। बेगम को भारत रास नहीं आ रहा है।" श्याम सुंदर धीरे से फुसफुसाया।
"मालती।" बहनोई की तेज आवाज़ सुनकर मालती भागती हुई पास आई, "क्या हुआ?"।
"होना क्या है? ज़रा पास आकर बैठो तो कुछ कहें।"।
"कहिए।" वह बहनोई के पास आकर बैठ गई।
"इधर नहीं, उधर चौधरी के पास। शिकायत इन्हें है।"।
"शिकायत?" उसने आश्चर्य से श्याम सुंदर की ओर देखा।
"कुछ नहीं, बैठो पास में।" श्याम सुंदर मुस्कुराए।
"इस तरह से मुँह सिलकर नहीं बैठ सकती। इतने बच्चे आए हैं, तुम भी हँसो-बोलो।"।
"जो बहुत कुछ कहना चाहते हैं, वे अधिकतर चुप ही रहते हैं। फिर दूसरों की बात सुनने में जो आनंद है, वह अपनी कहने में कहाँ?"।
"जीजाजी आप इनसे बातें करिए। मैं बच्चों के पास जा रही हूँ।"।
"इनको बच्चों से बहुत लगाव है।" श्याम सुंदर ने एक लंबी साँस ली।
"फ़ोन पर बेटे-बहू से बात करके आ रही हूँ। उनका यहाँ इतनी जल्दी आने का कोई प्रोग्राम नहीं है।" छाता गैलरी में रखते हुए मालती ने लगभग रुआँसे स्वर में कहा।
"तुम तो बहुत भीग गई हो।" श्याम सुंदर के स्वर में आत्मीयता घुली जा रही थी।
"बेटा फ़ोन पर कह रहा था कि वह हमें बहुत मिस कर रहा है। मेरा तो मन यहाँ बिल्कुल नहीं लगता। दिल कर रहा था, फ़ोन पर बात करते-करते उड़कर उनके पास पहुँच जाऊँ।"।
"कपड़े बदल लो। चलो कॉफ़ी बनाते है।" श्याम सुंदर के स्वर की शीतलता ने मालती के मन को झकझोर दिया।
"तुम अपने तक ही सीमित क्यों हो गए हो?" उसकी आँख में आग और पानी दोनों सम्मिलित हो गए थे।
"क्यों, क्या बच्चों के अलावा और कोई विषय नहीं है तुम्हारे पास?" उनके स्वर में आक्रोश कम निरीहता अधिक थी।
रात का प्रथम पहर समाप्त हो चुका था। मालती और श्याम सुंदर दोनों को नींद कुछ कहने के लिए जगाए हुए थी। जले और बुझे अनेक तीर दोनों के तरकश में थे।
"सुनो, मुझे बच्चों के पास अमेरिका जाना है।"।
"क्या इसे तुम्हारा अंतिम फ़ैसला समझूँ?" श्याम सुंदर ने धीरे से हाथ बढ़ाकर मालती का हाथ थाम लिया।
"तुम पूरे दिन पसीने से तरबतर रहते हो। दो टाइम नहाना भी तुम्हें अच्छा नहीं लगता, क्या अइयाजी ने तुम्हें अफ़ीम खिलाकर पाला था?"।
मालती ने श्याम सुंदर का हाथ धीरे से परे कर दिया।
"आज अइयाजी की याद कैसे आ गई?" श्याम सुंदर हँसे।
"हाँ अइयाजी की एक-एक बात मुझे याद है। कुछ दिन बेटे के पास सुख से रह रहे थे, तो तुमने यहाँ आकर..."।
"मैंने यहाँ आकर क्या... । मैं विदेश में पुअर ओल्ड मैन की डिग्री लेकर नहीं रह सकता। आई हेट दैट कल्चर। खाओ-पिओ और मौज करो, बस यही है ज़िंदगी। भौतिक सुविधाएँ और युवावस्था की आपाधापी... और तो और दूसरे देश का युवा भी सेकंड सिटिज़न... नॉनसेंस।"।
"व्हाट नॉनसेंस!" मालती आवेश में आ गई।
"मैं कल ही वापसी की तैयारी में लगती हूँ। तुम यहाँ रहो, यहाँ का देश-राग अलापते रहो। जब वहाँ आने का मन हो, फ़ोन कर देना, व्यवस्था हो जाएगी।"।
"व्यवस्था, कैसी व्यवस्था?" श्याम सुंदर के स्वर में बेपनाह हैरानी थी।
"जिस सुख के लिए तुम वहाँ भाग रही हो, क्या वहाँ उस सुख की गारंटी है?"।
"यहाँ क्या है?" मालती ने सीधे सवाल किया।
"यहाँ हम कुछ लेने नहीं आए हैं। और ज़िंदगी बनिए की दुकान भी नहीं है, जहाँ लाभ की कामना ही की जाए। हम अपना जीवन जी चुके हैं, बच्चों पर भार क्यों बनें? तुम कुछ भी समझो, मुझे तो अपने देश की मिट्टी से मोह है।"।
"मोह! ।।" मालती ने मुँह बिचकाया।
अगले दिन से दोनों में अव्यक्त अनबोला शुरू हो गया। बाहरवालों के सामने व्यवहार बिल्कुल सामान्य। भोजन, चाय-नाश्ता सब एक साथ, मगर ज़ुबान बिल्कुल ख़ामोश। कुछ दिन बाद क्रम टूटा।
"मैं परसों वापस जा रही हूँ।"।
"कहाँ?" हैरानी से श्याम सुंदर का मुँह खुला का खुला रह गया।
"अमेरिका, बेटे के पास।" मालती ने नपा-तुला जवाब दिया।
"तुमने बिना बतलाए तैयारी भी कर ली।"।
"किसको बतलाती?"।
"बुढ़ापे में हम दोनों को एक-दूसरे का ही सहारा है। यह भी नहीं सोचा।"।
"सब सोचकर ही फ़ैसला किया है।"।
फिर अमेरिका जाने का दिन भी जल्दी ही आ गया।
"मेरी सवेरे पाँच बजे की फ़्लाइट है।" मालती ने कहा, तो श्याम सुंदर ने गौर से उसकी ओर देखा। उसकी आँखों ने जो कुछ मालती से कहा उसे उसने समझ कर भी नहीं समझा।
"मैं एयरपोर्ट तक पहुँचा दूँगा।"।
"सवेरे-सवेरे परेशान होने की ज़रूरत नहीं है। छोटे भाई से कह दिया है, वह अपनी गाड़ी से पहुँचा देगा।" संवाद पर यहीं विराम लग गया।
उस रात किसे नींद आई कुछ कहा नहीं जा सकता। सवेरे गाड़ी का हॉर्न सुनकर श्याम सुंदर की नींद खुली, तो मालती बैग अटैची उठाकर "चलती हूँ..." कहते हुए बाहर निकल गई।
दिन निकल रहा था। छोटे साले का फ़ोन आया, "दीदी को एयरपोर्ट पहुँचा दिया है। फ़्लाइट एक घंटे लेट है।"।
मालती प्रतीक्षालय में अटैची-बैग रखकर आराम से सोफ़े पर बैठ गई। अचानक उसे आभास हुआ जैसे वह बोधिवृक्ष के नीचे बैठी हो। सुन्न होते हुए शरीर की सारी उष्मा मस्तिष्क को मथ रही थी। किसी अदृश्य शक्ति ने उसे कुरेदा।
जिस मोह में वह भागकर जा रही है, क्या वह ठीक है? बेटा-बेटी दोनों वहाँ अपने अपने परिवार में रचे-बसे हैं। उसका अस्तित्व तो वहाँ होते हुए भी न के बराबर है, जब तक हाथ-पैर चल रहा है, सब ठीक रहेगा। कई वर्षों तक उसने वहाँ नौकरी की है। उसकी उसे अच्छी पेंशन मिलेगी, मगर उससे क्या? पैसों की तंगी तो यहाँ भी नहीं है। फिर पैसा ही तो सब कुछ नहीं होता।
श्याम सुंदर जाग चुके होंगे। वह सोफ़े से अच्छी तरह चिपक कर बैठ गई। नए घर में अभी तो सामान भी व्यवस्थित नहीं किया है। वह स्वयं चकित थी कि सात फेरों के बंधन को नकार कर वह यहाँ आ कैसे गई?
अभी तक माँ होने के नाते उसका जो ममत्व कुलाँचे मार रहा था, वह भी उसे चिढ़ाता हुआ लगा। बेटा पूछेगा, "पापा को अकेला छोड़ आई।" जिसके मोह में भागकर जा रही थी, उसी ने पलट कर वार कर दिया था। इस वार से वह तिलमिलाई नहीं, कुछ सोचने को बाध्य हो गई। भूत-भविष्य सब गड्डमड्ड हो गए। सिर्फ़ वर्तमान उसके सामने साकार खड़ा था।
वर्तमान अपना घर, अपनी गृहस्थी, अपना पति। सम्पूर्ण जीवन की अनुभूतियों का यदि वह बँटवारा करे, तो उसका बहुत बड़ा भाग भारत में उसके घर में ही बिखरा या सजा हुआ था। जिस तरह उसके बच्चों के अपने परिवारों के प्रति फ़र्ज़ और ज़िम्मेदारियाँ है, उसकी अपने घर के प्रति भी तो ज़िम्मेदारी और जवाबदेही है।
इसी उहापोह में कितना समय निकल गया, उसे पता ही नहीं चला। वह तंद्रा में थी आसपास से बेख़बर।
वह बार-बार अपने घर का जीना चढ़ रही थी। श्याम सुंदर कभी ऊपर वाले पाँवदान पर तो कभी नीचे वाले पर। क्या करे क्या न करे। अचकचाकर उसकी तंद्रा टूटी, हवाई जहाज़ जा चुका था।
"थैंक गॉड।" उसके मुँह से निकला। अपना सामान उठाए वह इत्मीनान से बाहर आ गई। खुली हवा में उसने चैन की साँस ली और पानी की बोतल घूँट-घूँट पीकर खाली कर दी।
"टैक्सी।" उसने हाथ दिया। टैक्सी में बैठते ही एक पल को उसकी आँखें बंद हुईं।
उसे उलझन हो रही थी। घर दूर क्यों हो गया है। गाड़ी धीरे-धीरे क्यों चल रही है।
कब वह घर पहुँच गई, कब उसने कॉलबेल बजाई उसे कुछ पता ही नहीं चला।
"अरे, क्या हुआ? गई नहीं तुम?" श्याम सुंदर आश्चर्यचकित थे।
"नहीं, मैं लौट आई हूँ।" वह धम्म से सोफ़े पर बैठ गई।
"हुआ क्या?"।
"होना क्या है? कोई अदृश्य शक्ति थी जिसने मुझे जाने नहीं दिया।" मालती थके, किंतु स्थिर स्वर में बोली।
"मुझे पता था।"।
"क्या?"।
"यही कि तुम नहीं जा सकतीं।"।
"फिर उसी समय क्यों नहीं रोका?"।
"और किसने रोका।"।
"श्याम सुंदर तुम! तुम..." मालती स्तब्ध हो गई।।
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