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हमीदन की ममता | Story of Compassion and Humanity


हमीदन बी हमारे मोहल्ले की चलती-फिरती बातों की पिटारी थी। सांवला गठा हुआ शरीर ठिगना कद, मामूली नाक-नक्श पर जुबान गजब की तेज जर्रार। वैसे तो वह खुद ही बड़बड़ाती हुई चलती थी पर अगर उससे कुछ पूछ बैठो तो वह मुसीबत ही गले पड़ जाती थी। जब तक किस्से की एक-एक परत नही उधेड़ देती सुनने वाले कर पीछा ही नहीं छोड़ती। फिर भी कोई पीछा छुड़ा कर चले तो हमीदनबी की आवाज उसी अनुपात में ऊंची होती चलती ताकि जितनी भी दूर वह शख्स चलता चले, जाते-जाते भी बात तो पूरी सुन ही ले। उसकी आवाज मोहल्ले में भटकती आत्मा की तरह किसी न किसी कोने में सुनाई पड़ती रहती।
घर से निकलते ही मैने देखा कि सामने से हमीदन बी आ रही है। हमेशा की तरह अपने से बतियाती हुई। वह बहुत खुश नजर आ रही थी। खुशी उसके चेहरे से फूटी पड़ रही थी। आज तो वह जुबान के साथ-साथ हाथ भी चला रही थी। मेरे मुंह से बेसाख्ता निकल गया, 'हमीदन आज बड़ी खुश नजर आ रही हो।

अब मुसीबत मैंने खुद बुलाई थी। झेलनी भी मुझे ही थी। पता लगा हमीदन हवेली की ओर से आ रही थी। वही हवेली जहाँ हमीदन के मियाँ वाहिद चौकीदार थे और उसके पिछवाड़े ही उसकी कोठी भी बनी हुई थी। हां वही बड़ी सी हवेली जो हरदम अंधेरे में डूबी रहती थी। वहां रोशनी के नाम पर तो वाहिद मियां की बीड़ी सुलगती दिखाई देती थी या उनकी लालटेन की लौ।

कोई आवाज सुनाई देती थी तो सिर्फ वाहिद मियां के खांसने खंगारने की आवाज या फिर बोझिल एकांत को तोड़ने के लिए ऊंची आवाज में दी गई उनकी ढेर, 'जागते रहो'

अब उस हवेली में रहता ही कौन था जो जागता रहता। मालिक तो हैदराबाद जाकर बस गए थे। हवेली उनके पुरखों की निशानी थी और उसमें पीर-फकीर की एक मजार भी थी।

इसलिए उसके रखरखाव को एक चौकीदार रख छोड़ा था। वाहिद मियां, 'जागते रहो' कहकर खुद को जगाए रखने की कोशिश करते। हां, उस आवाज से सबको उनके जागते रहने का प्रमाण जरुर मिल जाता। दिन में वह अपनी कोठरी में जाकर सो जाते और हमींदन हवेली को झाडू बुहारीकर आती। मजार पर अगरबत्ती जला आती।

वहीं से तो आ रही थी हमींदन। उसने बताया आज हवेली में बहुत रौनक थी। मालिक अपनी दोनों बेगमों के साथ वहां आए हुए हैं। 'क्या कहा बेगमों ने ?' मैंने उसकी बात में खलल डाला। 'हां' टोका जाना हमीदन को बिल्कुल पसंद नहीं था। खासकर जब कि वह अपनी रौ में बोली चली जा रही हो। मालिक के घर चौदह साल तक औलाद नहीं हुई। अभी पिछले साल ही तो उनकी बड़ी बेगम खुद अपनी ही बहन को सौत बनाकर ले आई। उन्हीं की गोद हरी हुई है चांद सा लल्ला देखकर आई हूं उनके घर। उसी की मन्नत की शिरनी और पुलाव लुटाने आए हैं वे सब पीर के मजार पर।

'तो तू पुलाव खाने की खुशी में फूली-फूली फिर रही है।' मैंने फिर छेड़ दिया।

'अरे नई बी। तुम नहीं समझोगी। मालिक के चेहरे पर क्या खुशी नाच रही थी। वो ही तो कह रहे थे मियां को।' मियां का नाम लेते ही सांवली हमीद तब भी लाल-गुलाबी हो आई जबकि वो अधबूढ़ी होने को आई थी।

'अरे तुम शरमा रही हो। तुम्हारे घर थोड़े ही लल्ला हुआ है।' हमीद का मुंह उतर गया। मैंने बात बदलते हुए कहा, 'हां क्या कह रहे थे?'

'जाओ नहीं बताती।' पर बताए बिना चैन थोड़े ही पड़ता। थोड़े नखरे दिखाकर सारी कथा बघार गई। मालिक उसके मियां को कह रहे थे हवेली में चिरांगा करना। शीरनी बंटेगी, देग लुटेगी।

बरसों बाद साध पूरी हुई है। इस हवेली का चिराग रोशन हुआ है। हमीद तो बावली हो रही थी, क्या जलाल था बड़ी बेगम क चेहरे पर। अपने हाथों से शीरनी बांट रही थी। फकीरों को बड़ी-बड़ी रकाबी भर पुलाव दे रही थी। जिनके पास कोई बरतन नहीं था बड़ी मनुहार करके उन्हें कागज पर झोली में दे रही थी। फकीरों की झोली में से घी चू रहा था। पुलाव की खुश्बू दूर-दूर तक फैल रही थी। मानों हाथ पकड़कर सबको न्योता दे रही थी।
हमीदन टुकूर-टुकूर हवेली के कोने से, खंबे की आड़ से सारा नजारा देख रही थी।

बड़ी बेगम के नूरानी चेहरे से टपकती खुशी, छोटी बेगम के चेहरे पर शर्म, हया वफादारी और मसर्रत सभी एक साथ बयां हो रहे थे। लल्ला सोने के कड़े, चांदी की पायल पहने था। सबकी दुवाएं उस पर बरस रही थी।

'अरी हमीदन ! तू भी खा ले। मेरे लल्ला की खुशी में तू शरीक नहीं होगी क्या ?

बेगम ने बुत बनी हमीदन में मानों प्राण फूंक दिए। वह लपककर आई और बेगम के कदमों के पास बैठ गई। धीरे से फुसफुसाते हुए बोली, 'बड़ी बी एक बात तो बताओ। तुम्हारा कलेजा नहीं फटा अपने खाविन्द को दूसरी...'

बड़ी बेगम ने मुंह पर पल्ला ढांपते हुए अपनी हंसी को छुपाया फिर भी उनकी हंसी उनके जर्दे रंगे दांतों की चुगली खा ही गई। बेगम बोली, 'जरा अपने मालिक के चेहरे की खुशी को देख। उनकी खुशी के लिए यह इसरार मैंने ही किया है। और फि यह तो मेरी बहन है। मैं अपनी मर्जी से लाई हूँ। अगर वो खुद ऐसा कदम उठाते तो मैं क्या कर लेती ? अरी हमीदन जो सुख मुझे इस बड़प्पन में मिला है न, वो अकेले का सुख भोगकर नहीं मिला था।'

हमीदा जरा सी शीरनी चखकर गंभीर मुद्रा में घर की तरफ चल दी। वह दिन गया हमीदा फिर लंबे समय तक दिखाई नहीं दी। हम उसकी चटपटी बातों के लिए तरस गए।

कुछ ही दिन बीते होंगे शहर में दंगा हुआ। मुसलमानों के छोरे मिलकर गुवाड़ी से पंडीत रामदीन की छोरी उठाकर उसको पीली हवेली ले गए। वह छोरी चिरई थी भी बहुत खूबसूरत। पर इसका मलतब थोड़े ही हुआ कि अगुवा करके ले जाया जाए। फिर सुना चिरई ने इस जलालत को न सह सहने के कारण खुदकुशी कर ली। काश हमीदन दिखती तो सही बात का पता चल जाता। परंतु पता नहीं वो भी कहां मर खप गई। मोहल्ला तो सूना हो गया।

साल भर बीतने को आया। सब भूल से गए। एक दिन हमीदन एक गोरे चिट्टे बच्चे को लेकर हवेली की तरफ जाती हुई दिखाई दी। 'अरी हमीदन यह कौन है? तेरा पोता?' मैंने छेड़ा। हालांकि मैं जानती थी हमीदन के कोई बच्चा नहीं है तो पोता कहां से होगा? हमीदा की गोद में वह बच्चा ऐसा लग रहा था मानों किसी काले कलूटे बोरे में से सफेद रुई झांक रही हो।

'नहीं, मेरा बेटा है।' हमीदा ने उसे अपने मटमैले पल्लू में छिपाते हुए कहा।

'अरी तेरी तो कोई औलाद नहीं थी। ये कहां से मिल गया? कहीं बच्चा खिलाने की नौकरी कर ली है क्या ? मुझे चुहल सूझ रही थी। टाट में मखमल के पैबंद सा सुंदर बालक अपनी गोल आंखों से हमीदा के पल्लू से बाहर चेहरा निकालकर दुनिया को देखना चाहता था।

'अब लड़का नहीं था तो पोता कहां से होता ? तुम भी बी? । हमीदा मानों पीछा छुड़ाती हुई अपनी गोद में हीरे को छिपाती हुई खिसक ली।

मुझे हमीदा की यह रहस्यमयता बड़ी अजीब लगी। खास कर बात छुपाने का उसका अंदाज। मैं सोचती रह गई। बिना आस औलाद के पगला सी गई थी। न जाने किसका लाल लिए घूम रही है। सब जानते हैं निगोड़ी ने कौन-कौन से टोने- टोटके नहीं किए, कहां किस पीर-फकीर की देहरी पर मत्था नहीं टेका। सबसे बड़ा दुख उसे यही था उसका मियां वाहिद ऊंचा, लंबा और वैसा ही तगड़ा दिखता था और हमीदा के दांत एक-एक करके टूट गए थे। वह बुढ़िया सी दिखाई देने लग गई थी। सब जानते थे वह बेल अब हरी नहीं होगी। आज उसी हमीदा की गोद में बच्चा देखकर कौतूहल जरुर हुआ।

एक दिन की बात है बहुत तेज बरसात अचानक ही आ गई। मैं बाजार से लौट रही थी कि तेज पानी से एक कदम भी आगे बढ़ना मुश्किल हो रहा था। सामने हमीदा की झोपड़ी दिखाई दी। सोचा दो घड़ी वहीं सिर छिपा लूं। परदा हटाकर अंदर झांका तो क्या देखती हूं कुंज सी पतली, कोमल और सुंदर सी लड़की बिना बोले मन पर कब्जा जमा रही थी। हमीदा बड़ी की तरह उसे एक कोने में लल्ला को लेकर बैठने का हुक्म दे रही थी। वह अत्यंत आज्ञाकारिणी की तरह बच्चे को गोद में लेकर पलंग पर बैठ गई और हमीदन सामान को भीगने से बचाने की कोशिश कर रही थी। अचानक उसकी नजर मुझ पर पड़ी। हुमक कर बोली 'आओ बी, हियां बैठो छोटी के साथ।'

'यह कौन तुम्हारी बहू है?' मेरे प्रश्न का उत्तर देने से पहले ही हमीदा अंदर गई और एक रकाबी में गुड़ ले आई। उसका मान रखने को मैंने एक टुकड़ा उठाया तो वह एकाबी आगे खिसकाते हुए बोली, 'ले छोटी तू भी ले ले गर्माशा रहेगी। लल्ला को ठंड का असर नहीं होगा। ' मैं समझ गई कि बच्चा इसी का है। गौर से देखा तो मैं पहचान गई वह रामदीन की छोरी चिरई है। मैं एक बारगी ठंड से तो नहीं डर से सिहर गई। गुवाड़ी वालों को पता लग गया तो ?

मुझे उसकी तरफ गौर से देखकर सोचते हुए देख मेरे मन की बात हमीदा ने भांप ली। मेरा ध्यान हटाने को हमीदन बोली, 'चा बना लाऊं बी?' मैंने उसका हाथ पकड़ लिया और कहा, चिरई को यहां क्यों छिपा रखा है? कहीं...'

तुरंत मेरी बात काटते हुए बोली, 'चुप करो बी। दिवारों के भी कान होते हैं।'

'पर तूने यह क्यों किया ? तुझे डर नहीं लगा?' मैंने फुसफुसाते हुए कहा।

अब हमीदा फट पड़ी, 'क्यों डरूं? मैंने कोई गुनाह किया है। उन पापी नासपीटे छोरों ने उसके साथ जो जुल्म किया उसमें इस बेचारी का क्या दोष है? इधर मेरे भी कान पक चुके थे यह सुनते-सुनते कि हमीदा बांझ है, निपूती है। मैंने इसे पनाह दी, इसने मुझे लल्ला। दोनों ने मिलकर एक-दूसरे की इज्जत को ढक लिया।'

'क्या तूने इसका निकाह अपने पति से पढ़वा लिया है? इसके भाई और बाप को पता लगा तो क्या वो यहां रहने देंगे? क्या तुझे इस लल्ला को लेने देंगे? आग नहीं लगा देंगे तेरी झोपड़ी को।'

मैंने डर कर सिहरते हुए उसे सारे खतरों से आगाह कर देना अपना फर्ज समझा। हमीदा कहीं अपने अच्छेपन और भोलेपन में बहुत बड़ा खतरा तो मोल नहीं ले रही। 'क्यों लगा देंगे आग? उस दिन कहां थे लोग ?' क्रोध, उत्तेजना और आवेश में चिरई के होंठ फड़क रहे थे। मीठा बोलने के कारण जिसका नाम चिरई पड़ा था, आज दुःखों और जिम्मेदारी के अहसास से चहकना भूल चुकी थी। आक्रोश उसकी आवाज से साफ टपक रहा था।

'उन्होंने भी शायद यही सोचकर सब्र कर लिया हो, जैसा मैने सुना कि तुमने खुदकुशी कर ली।' मेरी इस बात से चिरई ने बहुत उपेक्षा से मुंह बनाते हुए कहा, 'उनके लिए तो मर ही गई' और लल्ला को हमीदन की गोद में थमाते हुए उठकर अंदर चल दी। बरसात भी थम चुकी थी। मैंने हमीदन के हाथ में शगुन के कुछ रुपये रखते हुए कहा, 'उमर हजारी हो तेरे लल्ला की हमीदन। कुछ भी हो तूने सबाब कमाया है।'

हमीदन भाव विह्वल हो उठी। उसकी आंखों में आंसू छलक आए और वह कुछ बोल नहीं सकी। मैं उस ममतामयी को उसी मनःस्थिति में छोड़कर चल दी।

वही हुआ जिसका डर था। अब गूदड़ में चिराग कहां छिपता है? एक दिन इतना हल्ला हुआ मानों मोहल्ले में बारुद फटा हो। लाठियों से लैस पंडित रामदीन और उसके लड़के पचास के करीब लोगों को साथ लेकर आ गए। वाहिद पर लानत भेज रहे थे। बहुत चख- चख हुई। हमीदन ने बहुत हिम्मत से सामना किया पर उत्तेजित भीड़ के सामने उसकी जबान की धार भी हल्की पड़ गई।

इतने में चिरई मानों दुर्गा का रूप धरकर सामने आ गई मोर्चा लेने को। सभी भौंचक्के रह गए। आते ही लल्ला हमीदन को थमाते हुए बोली 'हां अब मुझसे पूछो इसमें हिंदू का खून है या मुसलमान का ? घबराओ मत । इसे मैं तुम्हारे मत्थे नहीं मढ़ने वाली। इसकी मेहतारी तो बड़ी बी हैं। बाकी रही मेरी सो इस लाश को तुम ले जाना चाहो तो ले चलो। किसी ने इस झोपड़ी की एक खिरच भी उखाड़ी तो मैं उसका सिर फोड़ दूंगी। अरे तुम क्या जानो मुझे तो बड़ी बी ने मरते हुए बचाया है। वाहिद मियां ने तो मेरी तरफ देखा तक नहीं। और इधर का रुख करना ही छोड़ दिया। हवेली में ही पड़े रहते हैं। हां बड़ी बी को इस बच्चे की मां मानने में तुम्हें कोई परेशानी हो तो मैं वाहिद मियां से निकाह करने को भी तैयार हूं। अगर बड़ी बी मुझे हमेशा के लिए अपने कदमों में रहने की इजाजत दें तो।'

सबके लाठी बल्लम झुक गए, सिर्फ पंडित रामदीन चिल्लाए, 'क्या कह रही है तू कलमुंही...'

'गाली मत देना, गाली मत देना, यह हमारे घर की छोटी दूल्हन है।' हमीदन चिल्लाई, 'चल छोटी तू अंदर चल, आज झोपड़ी में चिरांगा करना है।' अचानक उसकी आवाज गिड़गिड़ाहट में बदल गई, 'भाई लोगों आप दुवाएं दो मेरे लल्ला को और बैर-बिरोध भूल जाओ। हालात ने जो जख्म दिए हैं उन्हें भरने का यही तरीका है। मेरी झोपड़ी में अंधेरा मत करो। होने दो रोशन इसे अल्लाह के नूर से।' कहती हुई' फफक-फफक कर रोने लगी। उसने सबके सामने झोली पसार दी। सब इधर-उधर बगल झांकते हुए खिसकने की सूरत तलाश करने लगे। इतने में सबने देखा कि यह खबर और शोर सुनकर वाहिद मिंया झोपड़ी की तरफ लपके आ रहे हैं। रामदीन को कुछ न सूझा। बिना सोच-समझे उनके मुंह से निकला, मुबारक हो।' वाहिद मियां हक्के-बक्के रह गए। हमीदन अपनी चादर से आंसू पोछते हुए मियां को अंदर ले चली। हल्ला इस अप्रत्याशित खुशी से निस्तेज पड़ गया था। ऐसा लगा मानों झोपड़ी चिरागों से यक-ब-यक जगमगा उठी थी।

- डॉ. आदर्श मदान

SARAL VICHAR


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