"अजी सुनते हो? रोहन को कंपनी में जाकर टिफ़िन दे आओगे क्या?"
"क्यों, आज रोहन टिफ़िन लेकर नहीं गया?" रोहन के पिता ने पूछा।
"आज रोहन की कंपनी के चेयरमैन आ रहे हैं, इसलिए वह सुबह सात बजे ही निकल गया था। इतनी सुबह खाना बनाना संभव ही नहीं था।"
"ठीक है, मैं दे आता हूँ।" हरीश जी ने अख़बार मोड़ा और कपड़े बदलने के लिए कमरे में चले गए। सावित्री ने राहत की साँस ली। जब हरीश जी तैयार हो गए मतलब उसके और रोहन के बीच हुआ विवाद उन्होंने नहीं सुना था।
बहस भी किस बात की? वही पुराना झगड़ा, रोहन अपने पिता पर आरोप लगाता और सावित्री हमेशा पति का पक्ष लेती।
मुद्दा भी वही, “हमारे पिताजी ने हमारे लिए किया ही क्या है ?
"माँ! मेरे दोस्त के पिताजी भी शिक्षक थे, पर देखो उन्होंने कितना बड़ा बंगला बना लिया। हमारे पापा क्यों नहीं बनवा सके?" रोहन झल्ला कर बोला।
"रोहन, तुम्हें पता है तुम्हारे पापा ने क्या किया है। घर संभाला, दो बहनों और दो भाइयों की शादी का खर्च उठाया। तुम्हारी बहन की शादी का भार भी उन्होंने ही उठाया। गाँव की ज़मीन के मामले भी उन्होंने ही सुलझाए। ये सारी ज़िम्मेदारियाँ किसने निभाईं?" सावित्री ने समझाया।
क्या उपयोग हुआ उसका? उनके भाई बहन बंगलों में रहते हैं। कभी भी उन्होंने सोचा कि हमारे लिये जिस भाई ने इतने कष्ट उठाये उसने एक छोटा सा मकान भी ढंग का नहीं बनाया, तो हम ही उन्हें एक मकान बना कर दे दें ?
सावित्री की आँखें भर आईं।
धीरे से बोली, "तुम्हारे पापा ने अपना कर्तव्य निभाया, बेटा। उन्होंने किसी से कोई उम्मीद नहीं रखी।"
रोहन चिल्लाया, "अच्छा, ठीक है! उन्होंने हज़ारों बच्चों को पढ़ाया है, अगर फीस लेते तो आज पैसे में तैर रहे होते। देखो आजकल के क्लास वाले कितनी बड़ी गाड़ियाँ चलाते हैं!"
सावित्री बोली, "यह सही है कि वे पुरस्कार पाते रहे। पर वे ज्ञान का दान करते थे, बेचते नहीं थे। इसीलिए उनका मान और नाम दोनों बढ़े।"
रोहन तिलमिला उठा। "उन पुरस्कारों से घर बनते क्या हैं? बस रखे हैं धूल खाते हुए!"
इतने में दरवाज़े पर दस्तक हुई। रोहन ने दरवाज़ा खोला तो हरीश जी अंदर खड़े थे। रोहन का चेहरा उतर गया। हरीश बिना कुछ कहे भीतर आ गए और बहस वहीं थम गई। यह कल की बात थी, पर आज कुछ अलग होने वाला था।
हरीश जी ने साइकिल पर टिफ़िन टाँगा और धूप में कंपनी की ओर निकल पड़े। वहाँ पहुँचते-पहुँचते उनका दम फूल गया। कंपनी के मुख्य द्वार पर सुरक्षा गार्ड ने उन्हें रोक दिया।
"आप अंदर नहीं जा सकते, साहब। अभी मीटिंग चल रही है। चेयरमैन आ गए हैं," गार्ड ने कहा।
हरीश जी धूप में खड़े रहे। एक घंटा बीत गया। पैर अकड़ने लगे तो वे पास ही पड़े पत्थर पर बैठ गए। तभी गेट खुला और अधिकारी गण चेयरमैन के साथ बाहर आए। रोहन भी उनके साथ था। उसने पिता को देखा तो अंदर ही अंदर सिहर गया।
चेयरमैन ने पूछा, "वो सामने कौन खड़ा है?" गार्ड बोला, "कंपनी के रोहन सर के पिता हैं, टिफ़िन लेकर आए हैं।"
"बुलाओ उन्हें अंदर," चेयरमैन ने आदेश दिया।
रोहन के माथे पर पसीने की बूंदें छलक आईं। वह शर्म से सिर झुकाए खड़ा था।
हरीश जी धीरे-धीरे आगे बढ़े। चेयरमैन ने मुस्कराते हुए कहा, "आप पाटिल सर हैं ना? डी.एन. हाई स्कूल में पढ़ाने वाले?"
हरिश जी ने चकित होकर पूछा, "हाँ, पर आप मुझे कैसे पहचानते हैं?"
चेयरमैन ने तुरंत उनके चरण छू लिए। सभी अधिकारी और रोहन यह दृश्य देखकर स्तब्ध रह गए।
"सर, मैं विक्रम मेहता हूँ, आपका विद्यार्थी। आपने मुझे घर पर पढ़ाया था," चेयरमैन बोले।
हरीश जी के चेहरे पर हल्की मुस्कान उभर आई।
चेयरमैन ने कहा, "आप यहाँ धूप में क्यों खड़े हैं? अंदर आइए, बहुत बातें करनी हैं।"
हरीश जी ने विनम्रता से कहा, "नहीं, आपकी मीटिंग थी, इसलिए बाहर ही रुक गया था। आपको कष्ट न हो, इसलिए अंदर नहीं आया।"
चेयरमैन ने उनका हाथ थाम लिया और अपने आलीशान कक्ष में ले जाकर कहा, "इस कुर्सी पर बैठिए सर , इस पर पहला हक आपका है। "जनरल मैनेजर बोला, "सच कहा जाए तो पाटिल सर जैसे गुरु ही हमारी नींव हैं।"
चेयरमैन ने आगे कहा, "मैं एक समय बहुत कमजोर विद्यार्थी था। पाटिल सर ने न केवल मुझे पढ़ाया बल्कि जीवन की दिशा दी। उन्होंने मुझसे कभी फीस नहीं ली। आज जो कुछ हूँ, उन्हीं की वजह से हूँ।"
सभी की आँखें नम थीं।
चेयरमैन ने हरीश जी से पूछा, "आप आज भी उसी पुराने मकान में रहते हैं?"
उन्होंने मुस्कराकर कहा, "हाँ, वही पुराना मकान है, वही पुराना बरगद का पेड़ भी अब तक खड़ा है।"
चेयरमैन कुछ सोच में पड़ गए। फिर बोले, "सर, मैंने शहर में कुछ फ्लैट लिए हैं। उनमें से एक आपके नाम कर रहा हूँ। इसे गुरु-दक्षिणा समझिए।"
रोहन के पिता ने तुरंत मना किया, "नहीं बेटा, मुझे किसी की मदद की आवश्यकता नहीं। तुम्हारी सफलता ही मेरी सबसे बड़ी दक्षिणा है।"
फिर रोहन से मुखातिब होकर पूछा, "तुम्हारी शादी हुई?"
रोहन ने झेंपते हुए कहा, "अभी नहीं सर, घर की स्थिति ठीक नहीं थी।"
चेयरमैन ने हँसते हुए कहा, "अब सब ठीक हो जाएगा। मैं तुम्हारी शादी की पूरी व्यवस्था करवा दूँगा। पर पहले मुझे एक वचन दो, तुम अपने पिता का आदर करोगे, और उन्हें कभी दुःख नहीं दोगे।"
रोहन की आँखें भर आईं। वह बोला, "वचन देता हूँ, सर।"
शाम को जब रोहन घर लौटा, तो पिताजी किताब पढ़ रहे थे और माँ सब्ज़ी काट रही थी।
रोहन ने बैग रखा, पिता के पास जाकर उनके पैर पकड़ लिए। "पापा, मुझसे बहुत भूल हुई। मैं आपको समझ नहीं पाया। आप सच में महान हैं।"
पिता ने बेटे को गले से लगा लिया। सावित्री सब देखती रही। उनकी आँखों से भी आँसू बह निकले।
वर्षों बाद आज उस घर में सच्चा सुख लौट आया था।
SARAL VICHAR
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