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दिल्ली ट्रिप अनुभव, बेटे के साथ नई जिंदगी और Fun Exploration | Delhi Trip Story

हमें तो अपना घर आंगन भाए |  WE LIKED OUR HOME COURTYARD | (HINDI STORY) - www.saralvichar.in



मैं मुरैना से आज ही दिल्ली आई हूं अपने बेटे के पास । दिल्ली के बारे में बहुत कुछ सुना है। दिल्ली का कुतुबमीनार, इंडिया गेट, राष्ट्रपति भवन, मेट्रो और नए-नए माल, गोदाम चल रहे हैं, वो सब देखकर जाऊंगी। स्टेशन पर खड़ी हूं। बेटा लेने आता ही होगा ।

यहां तो बहुत रेलमपेल है। लाउडस्पीकर दिख तो नहीं रहा पर लगातार आवाज आ रही है। वे आने- जाने वाली गाड़ियों की
सूचना रहे हैं।
 
लो बेटा आ गया। चलो भई चलो जल्दी से बाहर निकलें । हूं...स्टेशन तो काफी लंबा है और इतनी सीढ़ियां भी चढ़ी हैं, कोई बात नहीं घर पहुंचकर आराम करुंगी। चलो भाई चलो ।

ये लो जी हमने टैक्सी पकड़ ली। सड़कें तो चौड़ी चौड़ी दिख रही हैं पर आगे पीछे अगल बगल गाड़ियां ही गाड़ियां दिखाई दे रही हैं। रास्ता लंबा है तो चुप क्या बैठना, आपसे दो बातें ही कर लेती हूं। मेरे बेटे की शादी दो-तीन महीने पहले ही हुई है, बहू भी पढ़ी-लिखी है, काम करने जाती है। अब ये नौकरी करने वालों को तो ज्यादा छुट्टी मिलती नहीं सो बेटा-बहू बोले- आप ही आ जाओ हमारे पास । ठीक है जी, नई बहू के थोड़ा
लाड़-चाव कर दूंगी, थोड़ा दिल्ली घूम लूंगी, सबका मन और हो जाएगा।
बड़े से गेट के बाहर ही टैक्सी रुक गई, ऊंची ऊंची बिल्डिंग दिख रही है। लेकिन नीचे तो बस खंभे से दिख रहे हैं और उन्हीं के बीच खड़ी हैं इतनी सारी गाड़ियां बेटे ने बताया- ये पार्किंग स्पेस है, मां सबके घर ऊपर हैं। ठीक है लिफ्ट में चढ़कर हम छठे माले पर पहुंच गए हैं। छोटे-छोटे कमरे हैं और उनके साथ छोटी छोटी बालकनी। आंगन तो नहीं है पर ठीक है आजकल टीवी में ऐसे ही घर दिखते हैं। रात बहुत हो गई है, सो चाय-बिस्कुट के साथ दो बातें करके हम सोने चल दिए।

सुबह हुई इस मोबाईल का अलार्म के साथ, कभी उसका कभी इसका खटर-पटर, ये उठाया, वो रखा, ये जा, वो जा, बेटा-बहू काम को निकल लिए हैं? दिन की यह कैसी शुरुआत है? न उठकर दरवाजे-खिड़की खोलना, न चिड़िया को दाना डालना, न पौधों को पानी देना, न इत्मीनान से चाय पीना, बस भागमभाग। अब खाली घर है और मैं । क्या किया जाए? कुछ इधर ठीक किया कुछ उधर, एक चाय और पी ली। अखबार पढ़ लिया, काम वाली आकर झटपट पूरा घर समेट गई । बेटा-बहू तो लंच ऑफिस की कैंटिन में कर लेंगे। मैं अपने लिए थोड़ा पुलाव ही बना लेती हं। बना लिया, खा लिया... अब... चलो टीवी देखते हैं। कब आंख लग गई, पता ही नहीं चला । खूब सोए। उठकर कभी इस बालकनी में खड़ी होऊं, कभी उसमें । चलो तब तक शाम के लिए सब्जी बना लेती हूं। फ्रिज में पत्तागोभी, परवल हैं, ये छोटे-छोटे भुट्टे हैं, टमाटर हैं और बाहर आलू-प्याज तो है ही। आज भरवां परवल और दाल बना लेती हूँ । बेटे को भरवां परवल बहुत पसंद है। मैं छीलने , काटने का काम कर ही रही हूं कि दरवाजे की घंटी बजती है टींग-टांग । अहा! बेटा-बहू कोई तो आया है। में पल्ला ठीक-ठाक करते हुए दरवाजा खोलती हूं, पर यह तो कोई काम करने वाली है। नमस्ते मम्मीजी कहते हुए अंदर घुस गई। इस समय काम वाली क्या करने आएगी भला, शायद मुश्किल में है, पैसे-वैसे मांगने आई होगी । मैंने पूछा, 'घर पर सब ठीक है। 'हां मम्मीजी' कहते हुए वह किचन तक पहुंच गई । अरे हद है । मैं ड्राईंगरुम में खड़ी कुछ पूछ रही हूं और वह किचन में चली जा रही है।

इधर आओ, पहले मुझसे बात करो । यह बताओ इस समय तुम क्यों आई हो । 'जी मैं तो इसी समय खाना बनाने आती हूं।' 'खाना बनाने' मैं अवाक् रह गई। घर में दो ही तो लोग हैं और खाना पकाने किसी तीसरे को आना पड़ता है? इससे क्या कहूं, क्या ना कहूं, सोच ही रही हूं कि बेटा आ गया ।

उसे एक तरफ ले जाकर पूछती हूं, 'ये खाना बनाने वाली की क्या जरुरत है ? अरे मां, तुम्हारी बहू भी काम से आएगी तो थकी होगी फिर जल्दी जल्दी, कच्चा-पक्का, आधा-अधूरा खाना बनेगा । इससे तो अच्छा है कि खाना बनाने वाली रख ली जाए। पर बेटा अभी तो मैं हूं थोड़े दिन के लिए इस हटा दे । मां बड़ी मुश्किल से ढंग का खाना बनाने वाली मिली है। इसे हटाएंगे तो यह कोई दूसरा घर ढूंढ लेगी, फिर खोजने का सिरदर्द हो जाएगा।' असमंजस में मैं कहती हूं, 'फिर मैं क्या करूंगी।' बेटा बड़े प्यार से कहता है, 'आराम' तो में निहाल हो गई। चलो रोज की दाल रोटी इस खाना पकाने वाली को ही बनाने दो। मैं तो कल इन लोगों के लिए मूंग की दाल का हलवा बना कर रखूंगी।
दिन में फुरसत ही फुरसत थी। आराम से मूंग दाल का हलवा बनाया, डोंगे में नहीं- नहीं डोंगे तो स्टील वाले प्याले होते हैं, वो क्या कहते हैं गिलास बांऊल में निकाल कर बादाम-पिस्ते से सजाकर ढक दिया। शाम को बेटा-बहू घर में घुसे तो बहुत खुश हुए- बड़ी अच्छी खूश्बू आ रही है।

खाने की टेबल पर बैठे तो मैंने सबसे पहले डोंगे पर से ढक्कन हटाया कि पहले उन्हें परोस दूं, पर यूं लगा कि दोनों अचकचा गए हैं। बेटे ने झिझकते हुए पूछा कि 'क्या कोई आने वाला है।' जब मैंने कहा- नहीं तो उसने पूछा कि फिर इतना सारा क्यों बनाया है। 
'अरे हम खाएंगे, पड़ोसियों को खिलाएंगे और क्या । बस दो दिन में पूरा हो जाएगा ।' खैर उस समय तो हम सब खाना खाकर उठ गए पर मुझे यूं लग रहा था कि हलवे को देखकर खुशी कम और टेंशन ज्यादा हो गया है। रात में समेटा- समेटी करके बहु तो सोने चली गई पर बेटा पास आकर बैठ गया। दो-चार मिनट की ऊहापोह के बाद बोला, मां हलवा बहुत अच्छा बना था। 

'पर तुम लोगों ने तो ढंग से लिया ही नहीं।
दरअसल क्या है मां कि आजकल घी-चीनी ज्यादा कोई खाता नहीं है। सच में अड़ोसी-पड़ोसी भी नहीं। भई ज्यादा शारीरिक मेहनत तो करनी नहीं पड़ती । सब कामों के लिए तो मशीन है आजकल, तो फिर ज्यादा खाने की भी जरुरत नहीं है। हां कि नहीं...मन में सोच रही हूं । सोच रही हूं उस हलवे का क्या होगा?


मैने तो अगले
दस दिन के लिए डिशेज सोच रखी थी। एक दिन मलाई कोफ्ता बनाऊंगी, एक दिन दहीवड़ा, एक दिन पावभाजी और एक दिन.... रहने दो जी। मैं तो आराम करुंगी ।

चार दिन हो गए हैं आराम करते-करते। सच कहूं तो बावली हो गई हूं आराम कर-करके। घर में कोई बच्चा होता तो दिन यूं निकल जाता । अरे! मैं तो दादी बनने के सपने देखने लगी हूं। धत्! आजकल के बच्चे प्लानिंग-व्लानिंग करते हैं। चलो छोड़ो, इसके बारे में फिर कभी।

तो आराम करते करते बात पहुंच गई शनिवार-रविवार की छुट्टी तक, वो क्या कहते हैं, वीकएंड तक। पहले दिन हम बस से दिल्ली दर्शन को गए। अहा!... मजा आ गया। अभी तक टीवी और किताबों में तस्वीर देखी थी पर अपनी आंखों से देखने का मजा ही कुछ और है । कुतुबमीनार, लालकिला, जंतर-मंतर, हुमायूँ का मकबरा सब वाकई देखने लायक हैं। रास्ते में ऊंची-ऊंची बिल्डिंग, चौड़े- चौड़े रास्ते, चमचमाती कारें । नई दिल्ली की शान निराली है।

अगले दिन बारी आई मॉल की या सुनने में मोल सा सुन रहा है। पता नहीं क्या बला है।

जी हम मॉल पहुंचे तो बड़ा आश्चर्य हुआ । यहां सारी शीशे की ही दुकानें हैं। शीशे के ही दरवाजे हैं । रंग-बिरंगी सामानों से सजी हुई दुकानें बड़ी आकर्षक लग रही हैं । एक तल्ले से दूसरे तल्ले तक पहुंचने के लिए चलती सीढ़ियां हैं।
कहीं जूते की दुकान तो कहीं कपड़े की दुकान तो कहीं किताबों की तो कहीं सुंदर शो पीस की। और ये क्या? अरे यहां तो नाई की दुकान भी है। अंदर यूं लग रहा है औरतों के बाल आदमी काट रहे हैं। वैसे तो आजकल औरतें छोटे बाल और कई आदमी लंबे बाल रखने लगे हैं, पर आदमी औरत के बाल काटे, यह कुछ अजीब- सा लग रहा है। किसी के चेहरे पर लीपापोती हो रही है और राम-राम... बाहर आते-जाते लोगों को यह सब दिख रहा है। कैसा जमाना आ गया है। है तो बड़ा रंग-बिरंगी सा माहौल, लेकिन माहौल में कुछ बेपरवाही सी है। सूट-साड़ी पहने तो मुझ जैसी इक्की दुक्की ही हैं। पुतला समझ जिस लड़की के सामने मैं खड़ी हुई, तो वह बोली 'हैलो आंटी' और मैं झेंप गई जी।
यहां तो घूमते-फिरते लोग पुतले जैसे और पुतले जीते-जागते लोगों जैसे लग रहे हैं। हे राम!

बेटा मेरी उलझन और असमंजस को समझ रहा है। बोला- मां, बड़ी भूख लगी है चलो पहले कुछ खाते हैं। 

ठीक है जी। चलते-चलते हम जहां पहुंचे वहां बहुत सारी टेबल कुर्सी लगी है। तीनों तरफ दुकानें हैं। इस जगह को आजकल लोग फूडकोर्ट कहते हैं। कोर्ट का मतलब में तो कोर्ट-कचहरी ही समझती थी, जहां इंसाफ किया जाता है या फिर बैडमिंटन कोर्ट, वॉलीबॉल कोर्ट जहां खेलकूद होते हैं, अब एक और कोर्ट का पता चला है फूड-कोर्ट। इतनी सारी टेबल-कुर्सी हैं पर सब भरी हुई। हद है जी... लगता है आजकल घर पर कोई खाना बनाता ही नहीं है। सब यहीं आ गए हैं।

पहले तो हम टेबल के इंतजार में खड़े रहे । देशी विदेशी खानों की कैसी-कैसी देसी-विदेशी खानों की गंध आ रही है। हमने तो इडली-डोसा ही खाया और बेटे से कहा, 'बेटा अब और नहीं चला जाएगा। अब घर ही चलते हैं।' बाहर आए, तो सांस आई ।

भई नए शहर के लटके-झटके, नई पीढ़ी को ही सुहाए। हमें तो अपना मुरैना वाला घर आंगन ही भाए।
 
-अनीता होलानी
 
 
SARAL VICHAR 

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