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दिल की उलझनों और यादों के जाल में फंसा जीवन | Office Romance aur Mind Drama

शंकाओं के वर्तुल  |  CIRCLES OF DOUBT  - www.saralvichar.in


आज ऑफिस में मेरा मन नहीं लगा। फाईलों के बीच उसका चेहरा उभरकर आता रहा। किसी तरह लंच टाइम तक का समय काटा, फिर छुट्टी लेकर घर के लिए रवाना हो गया। गाड़ी चलाते वक्त भी उसका ध्यान आता रहा। दरअसल सुबह बालकनी में टहलते हुए युवक पर मेरी नजर अचानक ही पड़ी। इतना सुंदर और बलिष्ठ शरीर का स्वामी मैंने आज तक नहीं देखा था। तभी मन में विचार कौंधा, यह मकान तो न जाने कब से खाली पड़ा था। शालीनी भी कई बार शिकायत कर चुकी थी, तुम तो दिन भर बाहर रहते हो । आस-पड़ोस में भी खाली प्लॉट हैं। सामने एक ही तो मकान दिखता है, वह भी खाली। कोई दो बात करने वाला भी नहीं....।' मैं उसकी पीड़ा समझता था लेकिन यह संभव नहीं था कि मैं उसके टाईमपास के लिए कोई किराए का इंसान ले आऊं।
अनायास ही मेरे सामने अतीत के पन्ने खुलने लगे। शालिनी मेरे सामने वाले घर में ही रहती थी। उन दिनों मैं छुट्टियों में घर आया हुआ था। सुबह वरांडे में था कि सामने वाली बालकनी में मेरी नजर अटक गई। शालिनी बालकनी में इधर से उधर घूमती हुई मोबाईल पर बातें करने में मशगूल थी। न जाने कितने स्वप्न मेरी आंखों में तैरने लगे। मैंने चोर निगाहों से इधर-उधर देखा। कहीं कोई उसे देखते हुए मुझे कोई देख तो नहीं रहा ? फिर अनुमान लगाया कि इस समय पापा-मम्मी अपने-अपने कामों में व्यस्त होंगे। मैंने पुनः बालकनी पर नजर डाली, परंतु वह दोबारा नजर नहीं आई। मन मसोसते हुए मैं अंदर आ गया।

अतीत की यादों को झटककर ऑफिस से जैसे तैसे मैं घर पहुंचा। मुझे अचानक घर में देख शालिनी पहले चौंकी, फिर चिंतित स्वर में पूछ बैठी, 'आज अचानक, तबियत तो ठीक है?' मेरी इच्छा हुई कि उससे कहूं, नहीं मुझे कुछ नहीं हुआ और न भविष्य में कुछ हो सकता है। लेकिन मैं ऐसा कुछ नहीं कह सका। एक भेदती सी नजर शालिनी पर डाली और पलंग पर लेट गया। जहां वह लड़का सुबह देखा था वहां नजर गई। किसी को न पाकर मन आश्वस्त हुआ। कौन है यह? क्या करता है? शादीशुदा है भी या... ... ? न जाने कितने प्रश्न मेरे मस्तिष्क में चुभने लगे।

 मैं माथे पर हाथ रखकर पुनः अतीत में खो गया।

मैंने उस दिन मां से शालिनी के बारे में पूरी जानकारी हासिल कर ली थी। कौन हैं वे लोग? कहां से आए हैं? उनके पापा क्या हैं..वगैरह। अब तो सुबह उसे देखना मेरी दिनचर्या का अंग ही बनता गया। चाय पीने व अखबार पढ़ने के बहाने मैं यदा-कदा उसकी अदाओं का पान करने लगा । जैसे-जैसे मेरी छुट्टियां समाप्त होने लगीं, मेरी बेचैनी बढ़ने लगी। जाने से पहले मैं घुमा-फिरा कर पूछ बैठा, मां, इन लोगों के यहां कोई लड़की है क्या विवाह योग्य?' 'हां बेटा! वर्माजी और उनकी पत्नी बहुत परेशान रहते हैं। उनकी बेटी एमबीए कर रही है। इकलौती बेटी है। बहुत अच्छी है। लेकिन उसके योग्य वर नहीं मिल रहा।' मैंने कोई प्रतिक्रिया मां के सामने व्यक्त करना उचित नहीं समझा और सामान पैक करने लगा। जाने क्यों एक तीव्र इच्छा हृदय में घर करने लगी, काश! शालिनी दिख जाए। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। हृदय में एक चिंगारी दबाए मैंने वह शहर छोड़ दिया। 

पलंग पर लेटे-लेटे मेरी नजर अनायास ही सामने बालकनी पर जा टिकीं। वहां किसी को न पाकर मैंने शालिनी की गतिविधि पर एक गहरी नजर डाली। परंतु वहां भी कोई विशेष परिवर्तन नजर नहीं आया। वह नहाकर वरांडे में अपने बालों को तौलिए से सुखा रही थी। इस बीच वह दो तीन बार झांक-झांक कर मुझे देख गई थी कि मैं सो रहा हूं या जाग रहा हूं। परंतु मैं तो सामने वाले युवक के बारे में शालिनी की प्रतिक्रिया देखने के प्रयास में जी-जान से जुटा हुआ था। अलबत्ता दरवाजे के खुलने की आवाज सुनकर मैं यूं लेटा मानो गहरी नींद में हूं। आखिरकार शाम छह बजे वह सिरहाने आकर बैठी और मेरा सिर दबाने लगी। 'उठो! शाम पड़े नहीं सोते। चाय पी लो।'

मैं उठ बैठा और हम दोनों वरांडे में चाय पीने लगे। कल वह किस रुप में दिखेगा। शालिनी उस समय क्या कर रही होगी... मेरे लिए नाश्ता बनाएगी या किसी बहाने उस युवक को देखती मिलेगी। आखिर वो भी एक जवान लड़की है। जब मैं उसके रूप पर मुग्ध हो सकता हूं तो वह एक
पर पुरुष  क्यों नहीं... मेरे दिमाग में आने वाले कल की रूपरेखा बनने लगी और शालिनी के टूटे-फूटे वाक्य कानों में पड़ने लगे। 'मैं तो घबरा ही गई थी कि कहीं तुम्हारी तबियत... भगवान का लाख लाख शुक्रिया! आज खाने में क्या बनाऊं?' मैंने अनमने भाव से कुछ भी बना लो...' कहकर उससे पीछा छुड़ा लिया।

मैं फिर यादों में खो गया। मैं जब दोबारा छुट्टियों में घर आया, तो मां और शालिनी की मां में काफी घनिष्ठता हो चुकी थी। मां ने उन्हें वचन- सा देते हुए कहा था, 'आप लोग विवेक से बात कर लें। यदि उसे कोई ऐतराज न हो तो हमें यह शादी मंजूर है। विवेक का अंतिम वर्ष है। हम सर्विस लगते ही उसका विवाह कर देना चाहते हैं।' मेरे दिल की मुराद जुबां पर आने से पहले ही पूरी हो गई और एक दिन में और शालिनी विवाह सूत्र में बंध गए।

रात भर मुझे ठीक से नींद नहीं आई। सुबह में जल्दी ही उठ बैठा और अखबार पढ़ने के बहाने वरांडे में जाकर बैठ गया। मेरी नजर बालकनी व शालिनी दोनों पर थी। वह गुनगुनाती हुई आई और वहीं जमीन पर बैठ गई। मैं अखबार का एक-एक पन्ना पढ़ता जाता और उसे क्रमशः थमाता जाता। वह युवक सामने अखबार पढ़ने में मशगूल था। बिना बाहों वाली बनियान में उसका बलिष्ठ शरीर साफ दृष्टिगोचर हो रहा था। थोड़ी देर बाद शालिनी अंदर साफ-सफाई में जुट गई। झाडू लगाते-लगाते वह वरांडे में आ गई। वहां भी पूरे मनोयोग से धीरे धीरे
झाडू लगाने लगी। मानो झाडू नहीं कोई कशीदा काढ़  रही हो। मैं क्रोध और ईर्ष्या से जल उठा। क्या यही समय मिला है इसे सफाई करने का पर मैं क्या बोलू? मैंने घड़ी देखी और बुदबुदा उठा 'सवा आठ'! मुझे अब ऑफिस के लिए तैयार होना चाहिए। यह सोचते हुए मैं बाथरुम की ओर चल पड़ा। शालिनी किचन में जा चुकी थी। मैं शेविंग के लिए दुबारा शीशे के सम्मुख जा खड़ा हुआ। एक बारगी मेरी नजर फिर से बालकनी की ओर गई।

मुझे ऑफिस जाना था और मैं गया। मैं अभी भी लगातार उस युवक के बारे में सोच रहा था। साथ ही वरांडे में काम करती शालिनी का चेहरा घूम जाता। जब कई दिनों तक मैं यही सब कुछ सोचता रहा, तो मेरे काम में गलतियां होने लगीं। एक दिन बॉस चिंतित होकर पूछ बैठे- विवेक, आजकल क्या हो गया है आपको? क्या घर में कोई प्राब्लम हैं?' मैंने हंसते हुए कहा- नहीं सर, ऐसा कुछ भी नहीं है।' और बात आई-गई हो गई।

एक दिन में यूं ही लेटा हुआ था तभी शालिनी को फोन पर बातें करते सुना। भाईसाहब, इनको आजकल पता नहीं क्या होता जा रहा है। गुमसुम से रहते हैं। बात करने की कोशिश करो तो जैसे खाने को दौड़ते हैं। क्या ऑफिस में कोई बात...?

ऑफिस के लोग सोचते हैं कि घर की कोई समस्या है। घर में शालिनी मेरे बदले रुख को देखकर ऑफिस की किसी समस्या के बारे में सोचती है। लेकिन मैं हूं कि अपने ही बनाए जाल में ऐसा उलझा हुआ हूं...।

शालिनी अब मुझसे किनारा सा करने लगी है। जरुरतभर का बोलती है। हंसना बोलना तो वह भूल चुकी है। उसकी बदली हुई दिनचर्या से मैंने खुद ही अनुमान लगा लिया कि उसे मेरे ख्यालों का पता चल गया है। क्योंकि वह चुपचाप चाय रखकर चली जाती है। खुद अंदर ही चाय पीती है। अब वह बाहर आने से भी कतराने लगी है। एक-दो बार मैंने उसे अपने पास बैठने को कहा, लेकिन वह कोई न कोई बहाना बनाकर चली गई। 

इस तरह की घटना व ऐसी मनोस्थिति के लिए कौन जिम्मेदार है? मैं या मेरा शक्की स्वभाव? अनजाने ही मैं अंतद्वंद से घिरने लगा हूं। देखते ही देखते यह स्वर्ग सा घर नर्क बन गया है। जिस घर में हर वक्त शालिनी की हंसी लहराती रहती थी, वहीं शमशान सी खामोशी रहने लगी है।

इस तरह के व्यवहार से तो मैं स्वयं के साथ-साथ उसे भी कितनी बड़ी सजा दे रहा हूं । इस शक्की स्वभाव ने तो मुझे कहीं का भी नहीं छोड़ा। हर समय बालकनी में खड़ा युवक मेरी आंखों के सामने घूमने लगता। कितनी बार अचानक घर आकर मैंने चेक भी किया कि शालिनी और उस युवक के मधुर संबंधों की एक झलक ही पा लूं। लेकिन ऐसा कुछ नहीं देखने-सुनने को मिला।

एक दिन बिस्तर पर लेटे-लेटे उसने बहुत ही गहरी और बोझिल आवाज में कहा, 'सुनो, मैं सोचती हूं कि हमेंयह मकान बदल लेना चाहिए।

हूं'।

तुमने कुछ जवाब नहीं दिया।

'इस शहर में मकान मिलना इतना आसान समझ रखा है' उसे परखने के लिहाज से बोला।

'कोशिश तो कर सकते हैं?'

तुम्हीं कोशिश करके देख लो न! मैं रुखे शब्दों में बोला।

ठीक है। वह संक्षिप्त सा उत्तर देकर चुपचाप मुंह फेरकर सो गई। इधर दो-तीन दिन के लिए मुझे गांव जाना पड़ रहा था। शालिनी को मैं यहां अकेला नहीं छोड़ना चाहता था। थोड़ा घुमा-फिरा कर कहा, 'चलो तुम भी चली चलो, यहां अकेली क्या करोगी, मन न लगेगा।'

'ठीक है।'
गांव से वापस आने पर आज सुबह-सुबह चाय का कप और अखबार लेकर मैं वरांडे में जैसे ही बैठा, तो आंखों पर विश्वास नहीं हुआ। मैंने एक बार नहीं कई बार देखा। आंखों को मल-मलकर देखा। क्या यह सच है!! मैं खुद से ही कई प्रश्नोत्तर करने लगा। सामने 'टू लेट' का बोर्ड हवा में धीरे-धीरे झूल रहा था।

समाप्त 

-मंजुल गुप्ता

SARAL VICHAR
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