मेरी बेटी ने प्रेम विवाह किया है और बेटे ने भी। दोनों विवाह हमारी सहमति से जोरदार ढंग से हुए। बहू योग्य और समझदार है, तो दामाद लाखों में एक है। बेटी शादी के बाद विदेश जा बसी है। बेटा-बहू भारत में ही हैं। बहू बात-बात पर कहती है, 'मम्मीजी, आपके ज़माने में प्यार-व्यार तो होता नहीं था। शादी कर देते, फिर पूरी उम्र समझौते में निकल जाती।' हर बार मैं यही कहती, 'हां बेटा....।'
एक दिन मैं मन ही मन हैरान हो रही थी कि बेटे-बहू में आए दिन झगड़े क्यों होते हैं। 'यह तेरा काम है।' 'नहीं, मैं ही क्यों करूं, तुम्हारी भी तो कोई ज़िम्मेदारी है।' 'हम दोनों कमाते हैं, हक़ भी बराबर का है।' 'बच्चों को तुम पढ़ाओगे।' 'मैं क्यों पढ़ाऊं?' 'सब्जी नहीं है, तो पहले क्यों नहीं कहा?' 'हमेशा मैं ही क्यों देखूं, तुम भी तो देख सकते थे।'...... पर पति और मेरे बीच कभी इस तरह की तूतू-मैंमैं नहीं हुई। हमारा संयुक्त परिवार था। सास-ससुर, ननद-देवर, सभी थे। सबकी शादियां मेरे सामने ही हुईं। पैसों की तंगी भी रही, पर आरोप-प्रत्यारोप कभी नहीं हुए। मैं भी नौकरी करती थी। अध्यापिका थी। स्कूल जाने से पहले सारे काम निबटाती और फिर आकर सब काम करती। पति को मुझ पर दया आती, पर अम्मा के सामने कुछ कह नहीं पाते। रात को बच्चा उठ जाता, तो कहते, 'राधा, तुम सो जाओ। तुम थकी हो, मैं देख लूंगा।' उस समय तो मुझमें समझ नहीं थी, पर अब पति की बात याद आती है।
एक बार बाज़ार गए। बच्चों की यूनिफॉर्म खरीदनी थी। एक दुकान के शोकेस में बड़ी सुंदर साड़ी लगी थी। मैं उसी को टकटकी बांधे देख रही थी। पति ने पूछा, 'अच्छी लग रही है?' मैंने इंकार कर दिया। महीने के आखिरी दिन, तिस पर जुलाई का महीना। पढ़ने वाले बच्चों के ख़र्च भी थे।
अगले महीने के शुरुआती हफ़्ते में पति वही साड़ी ले आए। रात में बोले, 'किसी को दिखाने की जरूरत नहीं है। तुम पीहर जाने ही वाली हो, वहां से लौटकर कह देना कि भेंट मिली है।' मैं समझ गई। बड़ों को आदर देना है, उन्हें नाराज़ नहीं करना है, पर मुझे ख़ुश देखना भी चाहते हैं। मैं गद गद हो गई।
एक बार सिनेमा जाने की इच्छा थी, पर संयुक्त परिवार में कहकर जाना सम्भव न था। अतः हम दोनों ने छुट्टी लेकर साथ फिल्म देखी। बेटे-बहू ने तो शादी के पहले छुपकर फिल्म देखने का मज़ा लिया होगा, पर हमने तो शादी के बाद छुप-छुपकर रोमांस किया।
यादों का सिलसिला ही निकल पड़ा है। एक बार पतिदेव ऑफ़िस के बैग में छुपाकर गजरा लाए। रात को कमरे में आए, तब तक आधे फूल झड़ चुके थे और आधे मुरझा गए थे। पर उनके प्रेमभाव पर बड़ा प्यार आया था मुझे। अब भी याद कर पुलक उठती हूं। मेरी बहू 'मम्मी, मैं खा लेती हूं, भूख लग रही है' कहकर खाने बैठ जाती है। बेटा जब चाहे कह देता है कि मैंने बाहर ही खा लिया है। पर मुझे याद नहीं, हमने कभी अकेले खाना खाया हो। हम एक-दूसरे का इंतज़ार करते। साथ में खाने-खिलाने का मजा ही कुछ और होता है। मुनहार को कैसे टालेंगे आप !
आजकल पुरुष शोर मचाते हैं कि मैं पत्नी के साथ करवाचौथ का व्रत रख रहा हूं। पर उन दिनों मेरे पति करवाचौथ पर पेट ख़राब होने का बहाना करके पूरे दिन भूखे रहते। शाम को मेरे साथ ही खाते। किसी को कानो कान ख़बर भी न होती।
यही नहीं, इस बुढ़ापे में भी मेरे साथ काम करवाते हैं। 'तुम थक गई हो, बैठो।' उनका इस तरह कहना ही बहुत है । मन बाग़-बाग़ हो जाता है। काम की सारी थकान जाती रहती है। मुझे उस दिन की बात याद आ रही है, जब बीपी बढ़ने के कारण मुझे चक्कर आ गया था। उल्टी भी हो गई थी। इन्होंने ख़ुद साफ़ की। उसके पहले मुझे पलंग पर लिटाया, डॉक्टर को फोन किया। डॉक्टर ने आराम की सलाह दी। मैंने कहा, 'बहू को बुला लेते हैं?' बोलने लगे, 'क्यों, मैं तो हूं! मैं जितना तुम्हारा ध्यान रखूंगा, कोई दूसरा रख सकता है क्या!'
सच है, हमारे ज़माने में 'माई लव', 'डार्लिंग', 'आई लव यू' जैसी अभिव्यक्तियां नहीं होती थीं। पर हम लड़ते नहीं थे। बात-बात पर तूतू - मैंमैं नहीं होती थी। हर समय अधिकार की बात नहीं करते रहते थे। आगे बढ़कर काम करते थे। तेरा-मेरा कुछ नहीं था। एकाउंट भी साझे ही रखे। सब अपना था।
मुझे लग रहा है कि कब बहू आए, तो उससे ये सारी बातें साझा करूं। मैं बड़ी उत्सुकता से उसका इंतज़ार कर रही हूं।
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