मनुष्य खाली रहना नहीं चाहता। उसे शून्य से डर लगता है। उसे कुछ न कुछ पकड़ना ही है, चाहे दुख ही क्यों न हो। दुख को पकड़कर लगता है कि मैं कुछ हूँ। दुख छोड़ दें तो खाली हाथ!
इसलिए लोग दुख को छोड़ते नहीं।
आदमी दुख को दिखाता भी है ताकि सबका ध्यान खिंचे।
बच्चा कहेगा- सिर दर्द है, माँ पास बैठे। पत्नी कहेगी - सिर में दर्द है, पति प्यार करे। साधु कांटों पर लेटेंगे, उपवास करेंगे- ताकि लोग कहें, ‘‘देखो, कितने बड़े संत हैं।’’
जब तुम सुखी हो तो लोग जलते हैं। दुखी हो तो लोग तुम्हारे साथ खड़े होते हैं, सहानुभूति दिखाते हैं- पर भीतर से खुश होते हैं कि अच्छा हुआ, तुम्हारे साथ कुछ बुरा हुआ। जैसे गाँव में किसी ने बड़ा मकान बनाया- सब जलते हैं। मकान जल गया तो वही सब रोने आ जाते हैं- मगर अंदर से खुश होते हैं कि चलो, बराबरी हो गई।
मोह का मतलब होता है- जो मिल गया है, उसे जाने न दूँ। लोभ का मतलब है- जो नहीं मिला, वह पा लूँ। दोनों से दुख पैदा होता है। किसी के पास पाँच लाख हैं, वह पचास लाख चाहता है- तो जो है, उसे कसकर पकड़ता है। जवानी है तो चाहता है- सदा जवान रहूँ। रिश्ता बना तो डर है- कहीं टूट न जाए। पर यहाँ कुछ भी टिकता नहीं ..
दुख इसलिए बना रहता है क्योंकि आदमी डरता है कि अगर दुख छोड़ दिया तो बचेगा क्या? एक कागज पर लिखकर देखो- चिंता, डर, फिक्र, उलझन- सब छोड़ दो तो बचता क्या है? खालीपन! और इस खालीपन से आदमी डरता है।
कोई आदमी यह नहीं पूछता कि बिच्छू हाथ में काट रहा है तो उसे कैसे छोड़ें- बिच्छू तो तुरंत फेंक देते हैं। पर मोह और दुख को लोग पूछते रहते हैं कि कैसे छोड़ें, क्योंकि भीतर से मजा आता है।
बुद्धपुरुष कहते हैं कि मोह में दुख है- उनकी बात झूठला नहीं सकते, क्योंकि वे आनंद से भरे हैं और आम आदमी दुख से।
फिर भी भीतर की आस कहती रहती है- ‘‘अभी सुख नहीं मिला तो क्या, आगे मिलेगा। थोड़ा और कोशिश कर लो। दुनिया में कुछ तो सुख है, शायद अब मिलेगा। और नहीं मिला तो आखिर में धर्म तो है ही।’’ इसी उम्मीद में आदमी मोह को पकड़े रहता है। धर्म को हमेशा अंत में रखते हैं। हम कहते हैं नहीं होगा कुछ, तो आखिर में परमात्मा का स्मरण करेंगे ही। मगर जब तक जीवन है, चेष्टा तो कर लें। इतने लोग दौड़ते हैं, तो गलत तो न दौड़ते होंगे।
मुल्ला नसरुद्दीन ट्रेन में टिकट ढूँढ रहा था, सब जेबें देख लीं, बस एक जेब नहीं देखी। टिकट चेक करने वाला बोला- इसमें देख लो।
मुल्ला बोला- इसमें देखा तो? अगर इसमें भी नहीं मिली तो? वही एक आस है! आदमी भी भीतर नहीं झाँकता- डरता है कि अगर वहाँ भी कुछ न निकला तो? इसलिए बाहर-बाहर दौड़ता रहता है।
सच में दुख से मुक्ति का एक ही उपाय है- जैसे जीवन बह रहा है, वैसे बहने दो। नदी उल्टी नहीं बहती। तुम उल्टा बहोगे तो थकोगे, दुखी रहोगे। जवानी जाएगी, बुढ़ापा आएगा। महल बनेगा, टूटेगा। रिश्ता बना है तो टूटेगा। जो जैसा है, वैसा स्वीकार कर लो।
फूल खिलेगा तो मुरझाएगा ही। पत्थर की मूर्ति तो टिक सकती है, पर उसमें खुशबू नहीं। फूल ज़िन्दगी का प्रतीक है, कोमल, खुशबूदार, सुंदर, लेकिन नाज़ुक। फूल की तरह जीवन भी बदलता रहता है, चलता रहता है, टिकता नहीं। लेकिन आदमी चाहता है कि फूल कभी मुरझाए नहीं- वह चाहता है कि जो आज है, वही हमेशा रहे। इसीलिए वह फूल को पत्थर बनाना चाहता है यानी बदलते को रोक देना चाहता है। वह चाहता है प्यार कभी न बदले, जवानी कभी न जाए, रिश्ते कभी न टूटें, सुख कभी खत्म न हो। लेकिन अगर फूल को पत्थर बना दोगे तो होगा क्या? फूल में खुशबू थी, पत्थर में नहीं। फूल में कोमलता थी, पत्थर में नहीं। फूल जी रहा था, पत्थर मरा हुआ है। मतलब तुम जीवन को जड़ बना रहे हो। तुम्हारा डर तुम्हें ज़िन्दा चीज़ों से तोड़कर मुर्दा चीज़ों से जोड़ देता है। फिर जीवन मर जाता है, बस बाहर से ठहराव दिखता है, अंदर से रस खत्म हो जाता है।
जैसे दोस्ती में- जब तक दिल से दिल तक बहती है, तब तक मीठी रहती है। लेकिन अगर दोस्त को बाँधने लगो ‘‘तू सिर्फ मेरा रहेगा, किसी और से बात मत कर!’’ तो वही दोस्ती बोझ बन जाती है। खुला दोस्ती का फूल खुशबू देता है, बाँधोगे तो वह पत्थर हो जाएगी, बस नाम रह जाएगा, रस चला जाएगा।
लोग कहते हैं, ‘‘रविवार को आराम करेंगे।’’ लेकिन जिस दिन छुट्टी होती है, उसी दिन बेचैनी भी होती है। घर में बैठा नहीं जाता। लोग पिकनिक पर जाते हैं। भीड़-भीड़, ट्रैफिक-ट्रैफिक! समुद्र किनारे खड़े होने की जगह नहीं। चार घंटे कार चलाकर वहाँ जाते हैं जहाँ पहले से भीड़ लगी है। घर में ही आराम था.. पर खालीपन से डर लगता है। इसलिए नया झंझट... पिकनिक!
इंसान को खालीपन काटता है, इसलिए नया दुख पैदा करता है, ताकि व्यस्त रहे। खाली बैठने की हिम्मत ही नहीं। अगर एक दिन कुछ भी मत करो, अख़बार भी मत पढ़ो, मोबाइल भी मत चलाओ तो देखना, बेचैनी कितनी बढ़ जाती है! क्योंकि भीतर कुछ नहीं है , यह डर लगता है।
दोस्ती को खुला रहने दो। बाँधोगे तो मुरझा जाएगी।
-ओशो
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